Friday, August 19, 2011

वेद और स्वामी दयानन्द -book ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल Ex Arya pandit (2-2)

 पहला भाग

PDF Book Download Links:
Free
http://www.mediafire.com/?60kxxj1uff9vvdk
-
Online reading
http://www.scribd.com/doc/57826205/Ved-Swami-Dayanand-Mehmud-Dharmpal-Hindi-Arya-Study-Book-Good-Result
..................
दूसरा भाग

पाँचवीं फ़सल
वेद और आलमगीर शान्ति
अर्थात विश्व-शन्ति

अब मैं इस बात पर बहस करूँगा कि वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वाले जो ये दावे करते हैं कि दुनिया में जिस क़द्र जंग व जदाल, क़त्ल व खून और माद्दा परस्ती का इस वक्त ज़ोर है वह सब वेदों की तालीम से बेबहरा रहने का बाइस है और कि अगर दुनिया में वेदों की तालीम फैल जाये तो चारों तरफ़ अमन व अमान और आलमगीरी शान्ति का राज हो जायेगा। देखना चाहिये कि ये दावा वाक़िआत की बिना पर कहाँ तक सच है। पेशतर इसके इस बाब को शुरू किया जाये मैं मुनासिब समझता हूँ कि एक दफ़ा स्वामी दयानन्द के इस क़ौल को जिसको मैं पीछे भी नक़ल कर चुका हूँ, यहाँ पर दोबारा नक़ल कर दूँ। स्वामी दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश में लिखते हैं -
‘‘इस क़िस्म की प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न पमेश्वर इसको क़बूल करता है जैसा कि ये है कि ऐ परमश्ेवर! आप मेरे दुशमनों को फ़ना करो मुझ को सबसे बड़ा बनाओ। मेरी ही नेक नामी हो और सब मेरे मातेहत हो जाये वगै़रह वग़ैरह क्योंकर अगर दोनों दुशमन एक दूसरे के फ़ना होने के वास्ते प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों को फ़ना कर देवे अगर कोई कहे कि जिसकी मुहब्बत ज़्यादा होगी इसकी प्रार्थना सफल हो जायेगी तो हम कह सकते हैं कि जिसकी मुहब्बत कम हो उसका दुशमन भी कम दर्जे फ़ना होना चाहिये। ऐसी जिहालत की प्रार्थना करते करते कोई ऐसी प्रार्थना भी करने लग जायेगा वग़ैरह। (समुल्लास 7)’’
स्वामी दयानन्द की ये पोज़िशन जैसा कि पीछे दिखाया जा चुका है, बिल्कुल माकूल है। इस माकूलियत के मुक़ाबले में वेदों के वह तमाम मंत्र जो कि ऊपर दर्ज किये जा चुके हैं बिल्कुल लगू (बेकार) हो जाते हैं और ख़ुद स्वामी दयानन्द के क़ौल के मुताबिक़ वह महज़ जिहालत की प्रार्थनायें रह जाते हैं और ये है भी बिल्कुल ठीक। क्योंकि अगर इन मंत्रों को ख़ुदा का कलाम मान लिया जाये तो ख़ुदा की पोज़िशन एक तमाश बीन इन्सान से ज़्यादा बेहतर साबित नहीं हो सकती। जिन लोगों को बुटेर या मुर्ग़ लड़ाने का शौक़ होता है उनका क़ायदा होता है कि वह अपने अपने जानवरों को ख़ूब मोटा ताज़ा करते हैं और फिर लड़ने के लिये छोड़ देते हैं, जब वह लड़ते लड़ते थक जाते हैं तो वह उनको पानी और थापी देकर फिर लड़ाते हैं। चूँकि वह तमाशा बीन होते हैं इसलिये वह दानिस्ता जानवरों को आपस में लड़ाते हैं। अगर वेदों को मज़कूरा बाला मंतरों को ख़ुदा का कलाम तसलीम कर लिया जाये तो ख़ुदा की पोज़िशन हमारे नज़दीक इसी क़िस्म के एक तमाशबीन इन्सान की सी हो जाती है जबकि हम देखते हैं कि ऐसे मंत्रों का इलहाम देने वाला हम को भी अनाज पानी हवा सूरज की रोशनी वग़ैरह नेअ़मतों से बेहरवर करता है। और जिन के हक़ में वह हमें ये बद दुआ करने की तालीम देता है कि ये चीज़ें उनके लिये ज़ेहर हो जायें वह उनको भी यही चीज़ें अता करता है बल्कि अक्सर सूरतों में उनको हम से ज़्यादा बेहतर और कसरत से देता है। अब हमें तो ख़ुदा वेदों में ये तालीम देता है कि तुम अपने दुशमनों की हलाकत के लिये मुझ से ये दुआ करो उधर वह हमारे दुशमनों के साथ जा सकता है और उनको हर एक क़िस्म की चीज़ों से मदद देता है। न सिर्फ़ यही बल्कि वह हमारे दुशमनों को भी यही दुआ सिखाता है कि वह हमारी हलाकत के लिये इससे बददुआ करें। अब एक तरफ़ तो वेदों में दिये गये इलाही अहकाम के मुताबिक़ हम अपने दुशमनों के लिये बददुआ कर रहे हैं और उनकी हलाकत के मनसूबे सोच रहे हैं और दूसरी तरफ़ हमारे दुशमन हमारी हलाकत के लिये बददुआ करते और मनसूबे सोचते हैं। लुत्फ़ ये है कि हम दोनों ही वेदों के मंत्रों से अपने अपने रवैये की तसदीक़ करते हैं गोया ऐसी हालत में ख़ुदा एक तरफ़ हमारे दिल में भी दुशमनों के साथ लड़ने का जोश भर रहा है और दूसरी तरफ़ हमारे दुशमनों के दिल में भी हमारे मुक़ाबले पर डटे रहने का ख़्याल मज़बूत कर रहा है। सोचना चाहिये कि आया ख़ुदा की ये पोज़िशन जो कि वेद हमें बताता है बिएैयनिही मुर्ग़ को इन्सान की सी पोज़िशन नहीं है। वरना अगर ख़ुदा दरहक़ीक़त हमारे दुशमनों की हलाकत चाहता तो या वह दरहक़ीक़त पानी हवा अनाज वगै़रह को उनके हक़ में ज़ेहरीला करना चाहता हो तो उसको क्या ज़रूरत पड़ी है कि वह इन बातों की तकमील के लिये हमारे कानों मे आकर फूँक मारे और हमको यह इलहाम दे कि हम उससे दुआ करें कि हमारे दुशमनों के लिये पानी हवा अनाज वग़ैरह ज़िन्दगी के सामान सबके सब ज़ेहरीले हो जायें। जब वह क़ादिरे मुतलक़ और अलीमे कुल है। तो क्यों नहीं वह अपने इल्म से जान कर ज़्यादती करने वालों और पापियों के लिये अपनी हवा को बन्द कर देता, पानी को ख़ुश्क कर देता या अनाज को ज़ेहरीला बना देता या किसी और तरीक़े पर सज़ा दे देता। इसको हमारी दुआ या सिफ़ारिश की हरगिज़ ज़रूरत नहीं हो सकती। तावक्ते कि हम उसको लूला, लंगड़ा या गूंगा, बेहरा या सोया हुआ न फ़र्ज़ कर लें जिसको कि पापियों का नाश करने के लिये उसी तरह जाकर इत्तला देने या जगाने की ज़रूरत हो सकती है जिस तरह कि हम कोतवाली में जाकर जगाते या मुत्तलअ़ करते हैं। चूँकि ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ाते पाक इन बातों से अरफ़अ़ व आला है इसलिये लाज़मी तौर पर यही तसलीम करना पड़ता है कि मज़कूरा बाला क़िस्म की प्रार्थनायें न तो ख़ुदा का कलाम हैं न उनको ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना चाहिये। बल्कि बक़ौल स्वामी दयानन्द ये सब महज़ जाहिलों के अपने ख़्यालात हैं जो कि ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ाते वाला सिफ़ात से अंधेरे में थे और वह ख़ुदा को महज़ अपने ही शहर का कोतवाल समझते थे। अगर वेदों के मंत्रों के बनाने वालों को ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ात के बारे में कमाहिक़ा इल्म होता तो वह कम से कम इससे इस क़िस्म की नामाकूल प्रार्थनायें कभी न करते। मगर चूँकि वह ख़ुद ग़ैज़ व ग़ज़ब और हसद व बुग्ज़ का शिकार थे इसलिये उन्होंने दुशमनों के लिये भी जो प्रार्थनयें की हैं वह ग़ैज़ व ग़ज़ब हसद व बुग्ज़ की मुजस्सम तसवीरें हैं। शाक्यमणी गौतम बुद्ध की तालीम में ये ख़्याल बहुत ज़्बरदस्त अल्फ़ाज़ में पाया जाता है कि दुशमन को दुशमनी से दूर नहीं किया जा सकता बल्कि मुहब्बत से दूर किया जा सकता है अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारे दुशमन तुम से मुहब्बत करें तो तुम उनसे मुहब्बत करो यही ख़्याल हमें हज़रत ईसा मसीह की तालीम में मिलता है जबकि वह बदीं अल्फ़ाज़ उपदेश करते हैं-
तुम सुन चुके हो कि कहा गया है अपने पड़ोसियों से दोस्ती रख और अपने दुशमन से अदावत लेकिन मैं तुम्हें कहता हूँ कि अपने दुशमनों को प्यार करो और जो तुम पर लानत करें उन के लिये बरकत चाहो जो तुम से कीना रखें उनका भला करो और जो तुम्हें दुख दें और सतायें उनके लिये दुआ करे ताकि तुम अपने बाप के जो आसमान पर है फ़रज़न्द हो क्योंकि वह अपने सूरज को बदूँ और नेकियों पर यकसाँ उगाता है और रास्तों और ना रास्तियों पर मीह बरसाता है क्योंकि अगर तुम उन्ही को प्यार करो जो तुम्हें प्यार करते हैं तो तुम्हारे लिये क्या अज्र है कि क्या महसूल लेने वाले भी ऐसा नहीं करते। (मता बाब 5 आयतः 43-47)
हज़रत ईसा मसीह की मज़कूरा बाला तालीम वेदों के मज़कूरा बाला मंत्रों की तालीम से बदरजहा अफ़ज़ल है। अगर हज़रत मसीह और वेदों के मंतरों के इलहाम देने वाले का बाहम मुक़ाबला करना हो तो यक़ीनन् हज़रत मसीह का दर्जा ऐसे इलहाम के मालिक से लाखों गुना बढ़कर रहेगा। क्योंकि हज़रत मसीह ख़ुदावन्दे कुद्दूस की स्प्रिट में मुजस्सम प्रेम, अफ़ू और दरगुज़र की तालीम देते हैं, जबकि वेदों के मज़कूरा बाला मंतरों का प्रकाशक (जैसा कि वेदों को इलहामी मानने वालों का ख़्याल है) निहायत ही कीना तोज़ बुग्ज़ व हसद व ग़ैज़ व ग़ज़ब का शिकार नज़र आता है।
रसूले अरबी हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब की मुक़द्दस और पाकीज़ा ज़िन्दगी से भी ऐसे बहुत से वाक़िआत पेश किये जा सकते हैं कि जिन लोगों ने आप को अनवाअ़ व अक़साम की तकालीफ़ दी थीं आप पर जादू चलाये थे, कीचड़ फेंका था, गालियाँ दी थीं, आपको मारा था, ज़ख़्मी किया था, आपके दाँत तोड़े थे और आप के क़त्ल के मनसूबे बाँधे थे, घर से बेघर कर दिया था, आप का और आप के असहाब का माल व दौलत और घर बार भी लूट लिया था, लेकिन जब इस क़िस्म के आपके दुशमन आपके सुपुर्द गिरफ़तार करके लाये गये या लाये जाते तो आप हमेशा उनको माफ़ कर देते और आपने कभी किसी दुशमन से बदला न लिया बल्कि उहद के मौके़ पर जबकि आपको दुशमनों ने ज़ख़्मी करके एक ग़ार में फेंक दिया तो आपके कई रफ़क़ा ने आप से अर्ज़ किया कि आप ख़ुदावन्दे कुद्दूस से ऐसे बदकिरदार दुशमनों की हलाकत के लिये बददुआ करें तो आप ने कमाले नर्मी और इसतक़लाल से फ़रमाया-
अनुवादः ‘‘यानी मैं अपने दुशमनों पर लानत करने या उनके हक़ मे बद्दुआ करने के लिये नहीं भेजा गया बल्कि मुझे ख़ुदावन्दे कुद्दूस ने इस खि़दमत पर मामून किया है कि मैं उनको ख़ुदावन्द की तरफ़ बुलाऊँ और उनके हक़ में अबरे रहमत बनूँ। ऐ मेरे ख़ुदावन्द! तू मेरी क़ौम को हिदायत दे क्योंकि वह नहीं जानते कि मेरे साथ क्या सुलूक कर रहे हैं।’’
यक़ीनन् हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब की ये स्प्रिट हुस्ने अख़्लाक़ और दरगुज़र का एक नमूना है। लेकिन मुझे अफ़सोस के साथ इस बात का इक़बाल करना पड़ता है कि दुशमनों से दरगुज़र करने उनकी बहबूदी चाहने और उनसे प्रेम व मुहब्बत करने की तालीम का जो अमली नमूना महात्मा बुद्ध और हज़रत ईसा मसीह और हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब अपनी मुक़द्दस ज़िन्दगियों में दिखा गये, उसका यानी दुशमनों के साथ नेकी करने या उनसे दरगुज़र करने का वेद में कहीं नाम व निशान भी नहीं मिलता बल्कि जाबजा यही तालीम है कि दुशमनों की गर्दनें काटो, उनको ज़िन्दा आग में जला दो, शेरों से फड़वा दो, समन्दर में ग़र्क़ कर दो, दरिन्दों से चरवा दो, फाँसी पर चढ़ा दो वगै़रह वगै़रह। हालाँकि वेदों को ख़ुदा का कलाम कहा जाता है। अगर ख़ुदा का कलाम यही है तो यक़ीनन् गौतम बुद्ध और हज़रत ईसा मसीह और हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब की ज़ाते वाला सिफ़ात अरफ़अ़ व आला समझनी चाहिये। ऐसी सूरत में लाज़िम हो जाता है कि हम ऐसे ख़ुदा की बजाये अपनी इताअ़त व फ़रमांबरदारी का मुँह महात्मा बुद्ध या हज़रत ईसा मसीह या हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब की तरफ़ फेर दें या इस बात को तसलीम करें कि ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ात वाला सिफ़ात, उन इलज़ामों से मुबर्रा है जो कि मंत्रों में  इस पर लगाये गये हैं और ये कि वेद किसी सूरत में ख़ुदावन्दे कुद्दूस का कलाम नहीं हैं। सिर्फ़ यही नहीं कि वेद में अपने दुशमनों के लिये सख़्त से सख़्त सज़ायें और कमीने से कमीना बद्दुआयें तजवीज़ की गयी हैं बल्कि ख़ौफ़नाक जंग व जदाल की भी तालीम दी गयी है। वह लोग जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं उनको ये दावा है कि दुनिया में इस वक्त जिस क़द्र जंग व जदल और कश्त व ख़ून हो रहे हैं वह उस वक्त तक मौकूफ़ नहीं होंगे जब तक कि वदों का प्रचार नहीं होगा और कि दुनिया में अगर आलमगीर अमन की बादशाहत क़ायम हो सकती है तो वह महज़ वेदों के प्रचार से ही हो सकती है, वेदों की तालीम की मौजूदगी में ये दावा ऐसा बे बुनियाद दावा मालूम होता है कि जिससे बढ़कर बेबुनियाद और झूठा दावा दुनिया में कोई नहीं होगा जो लोग ऐसा दावा करते हैं ग़ालिबन् उन्होंने वेदों का मुतालेअ़ नहीं किया होगा कम से कम वह स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद भाष्य का ही मुतालेआ कर लें जिसको मैंने आम लेागों की वाक़िफ़यत के लिये उर्दू का जामा पहना दिया है तो उनका ये ख़्याल इस तरह उनके दिल से काफूर हो जायेगा। जिस तरह कि सूरज के सामने शबनम, पेशतर इसके कि मैं जंग व जदाल और कश्त व ख़ून के बारे में वेद मंत्रों को यहाँ पर दर्ज करूँ। मैं एक दूसरे दावे पर भी यहाँ पर चन्द जुमले लिख देना चाहता हूँ। चुनांचे वह लोग जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं वह ये भी कहते हैं कि इबतदाये आफ़रीनिश में भी इन्सान पैदा हुआ ही था कि इसकी रहबरी के लिये वेद नाज़िल हो गये। ये एक आम बात है कि पैदाइश के वक्त इन्सान का दिल बिल्कुल साफ़ और हर एक क़िस्म की शरारतों से पाक होता है। उस वक्त इसके दिल पर जो बात नक्श करना चाहो वह आसानी से नक़्श हो सकती है। इबतदाये आफ़रीनिश के बच्चों के दिल भी हस्बे क़ायदा तमाम शरारतों से पाक थे। और वह आपस में दंगा फ़साद कुश्त व ख़ून नहीं करते थे। इस वक्त अगर उनको किसी क़िस्म की तालीम की ज़रूरत थी तो वह आपस में प्रेम, मुहब्बत सुलह से रहने की तालीम की ज़रूरत थी, ये बात तो उनके कान तक भी नहीं पहुँचनी चाहिये थी कि तुम आपस में जंग करो, तीर कमान बनाओ, तोप और बन्दूक़ तैयार करो, फ़ौजें भर्ती करो, अपने दुशमनों की गर्दनें काटो, उन्हें ज़िन्दा आग में जला दो, मगर इबतदाये आफ़रीनिश में इन्सानों को कुश्त, ख़ून व जंग व जदल की मारधाड़, दुशमनी और अदावत की तालीम देने वाला अगर कोई हो सकता है तो वह वेदों के मंत्र थे जिनको पढ़कर वह उन ख़तरनाक बातों का शिकार हो गये और उन्होंने वेदों को पढ़कर तीर कमान, तोप, बन्दूक़, तलवार हथियार वगै़रह बनाने सीखे और ये ख़ुद उन लोगों का जो कि वेदों को सब से पहला इलहाम मानते है दावा है कि वेदों में इस क़िस्म के हथियार बनाने की तालीम मौजूद है। बनी नूए इन्सान का कोई बहीख़्वाह तोप और बन्दूक़ और दूसरे ख़तरनाक हथियारों के मौजूद या मुअल्लिम को मुबारकबाद देने के लिये तैयार नहीं होगा जबकि ये अम्रे वाक़िअ़ है कि इन चीज़ों ने ज़मीन के फ़र्श को इन्सानी ख़ून से रंग डाला और इन चीज़ों को इन्सानों के हक़ में लानत और शरारत बना दिया। बहुत से बनी नूए इन्सान के बही ख़्वाह ये तजावीज़ सोचने के लिये मजबूर हो रहे हैं कि इस शरारत और लानत को कयोंकर दूर या कम से कम घटाया जा सकता है। अगर ये दावे सच है कि वेदों का इलहाम इबतदाये आफ़रीनिश में हुवा। अगर ये दावा भी सच है कि वेदों ने ही सब से पहले अपने हम जिन्सों का गला काटने के लिये इस क़िस्म के हथियार बनाने की तालीम दी (जैसा कि वेदों को इलहामी मानने वाले बता रहे हैं) तो ज़मीन की मौजूदा लानत का सरचश्मा वेद को क़रार देना बिल्कुल मुनासिब और दुरूस्त होगा। लेकिन अगर ये कहा जाये कि वेदों के इज़हार से पेशतर दुनिया में इस क़िस्म के कुश्त व ख़ून और जंग व हदल जारी थे और कि वेदों की तालीम से पहले ही लोग तोप बन्दूक़ और तीर व कमान से एक दूसरे को हलाक कर रहे थे तो उनसे सिर्फ़ यही नहीं कि इस दावे की कि वेदों का इलहाम शुरू दुनिया में हुआ, तरदीद हो जाती है। बल्कि वेदों के सर पर ये इलज़ाम आयद हो जाता है कि जिस सूरत में कि ये जंग व हदल और कुश्त व ख़ून वेदों से पहले ही जारी थे तो वेदों ने अपनी तालीम से बजाये इनका ख़ात्मा करने या सुलह की तालीम देने के जलती आग पर और भी घी डाल दिया और जंग व जदल कुश्त व ख़ून करने फ़ौज भर्ती करने, तीर कमान, तोप बन्दूक़ और अनवाअ़ व अक़साम के आतिशीं और बिजली के असलहे तैयार करने की ऐसी ख़तरनाक तालीम दी कि तमाम दुनिया शोला-ए-ग़ार बन गयी, नमूने के तौर पर मैं इस निहायत ही ख़तरनाक कुश्त व ख़ून और जंग व जदल की तालीम देने वाले चन्द वेद मंतरों को यहाँ पर यजुर्वेद में से पेश करता हूँ -
(1) वह जो हवाई जहाज़ में बैठकर हवा में उड़ते हैं जिनके तीर हवा की मानिन्द चलने वाले हैं इन पुरानों की मानिन्द बहादुरों को हमारा सत्कार हो।’’ (यजुर्वेद 16/25)
(2) जिन के तीर बारिश की मानिन्द बरसने वाले हैं हम लोग दुशमनों को मारने वाले इन बहादुरों का सत्कार करते हैं।’’ (यजुर्वेद 16/51)
(3) ऐ सिपहसालार आप हम को दिली राहत देने वाले हों आप हमारी हिफ़ाज़त की ख़ातिर तलवार, तोप बन्दूक़ को ग्रहण करें। आप हिरन की खाल को पहने हुए हमारी हिफ़ाज़त के लिये आयें और दुशमनों की ज़बरदस्त फ़ौज को दरख़्त की मानिन्द काट कर फ़तह कीजिये। (16/51)
(4) ऐ सूर की मानिन्द सोने से नफ़रत करने वाले राजा! आप के जो अनवाअ़ व अक़साम के हथियार हैं वह हमारे सिवाये दुशमनों को मारने का मौजिब हों। (16/52)
(5) ऐ ख़ुश क़िस्मत सिपहसालार आप अपने ज़ोर आवर बाज़ुओं से बेशुमार हथियारों का कमाहिक़ा इस्तेमाल करने वाले हैं। (16/53)
(6) ऐ इन्सानो! जिस तरह हम लोग हज़ारों जीव जन्तुओं से भरी हुई और ज़मीन के हज़ारों पूजन लम्बे चौड़े देश व देशान्तर में अपनी कमान को चल्ले पर चढ़ाते हैं उसी तरह तुम भी करो। (16/54)
(7) हम लोग दुशमनों को मारने और उनको ताड़ने का काम करने वालों का सत्कार करते हैं। (16/45)
(8) हम लोग रूबरू होकर दुशमन को मारने वाले तीर बनाने वाले कमान बनाने वाले तीरो तफ़ंग चलाने वाले तुम लोगों का सत्कार करते हैं। (16/46)
(9) जो दुशमनों को पहले से ही घेर लेने और क़ैद कर लेने वाले और दुष्टों को मारने और उनकी बिल्कुल बेख़कनी करने वाले और दुशमनों को काटने वाले और हरे बालों वाले नौजवान या हरे दरख़्तों को अनाज और पानी देता है, वह सुख को प्राप्त करता है। (16/48)
(10) वह जो जंगल में रहने वालों को ऽह्नऽह्न तेज़ रफ़तार फ़ौज के सिपहसालार को तेज़ रफ़तार रथों के मालिक को कोचवान को दुशमनों को मारने वाले और उनको तितर बितर करने वाले बहादुरों और एलचियों को अनाज देते हैं वह फ़तह नसीब होते हैं। (16/34)
(11) ऐ राजा और प्रजा के पुरूषो! तुम लोग बलम और फ़तह लगाने वाले और उनका मुनासिब इस्तेमाल करने वाले पुरूषों का सत्कार करोऽह्न सिपहसालार और कमान अफ़सरों को बाजा बजाने वाले बैन्ड मास्टर का और बहादुरों को मैदाने जंग में जोश दिलाने के लिय ज़रीमा गीत गाने वाले का सत्कार करो। (16/35)
(12) राजा और प्रजा के पुरूषों को चाहिये कि वह बहुत से हथियारों से मुसल्लह और तीरों से भरे हुए तरकश वाले का सत्कार करें तेज़ हथियारों और तोप बन्दूक़ से मुसल्लह फ़ौज के सिपहसालार का सत्कार करें, ख़ूबसूरत हथियारों वाले और उमदा कमानों वाले पुरूषों और उनके मुहाफ़िज़ों को अनाज दें। (16/36)
(13) राजा अधीकारी पुरूषों को चाहिये कि वह दुशमनों को रूलाने वाले और दुशमनों की फ़ौज को मिट्टी में मिलाने वाले बहादुरों को अनाज वग़ैरह दें। (16/18)
(14) इन्सानेां को चाहिये कि जिसके पास तलवार, बन्दूक़ वगै़रह बहुत से हथियार हों उसको अनाज वगै़रह दें। (16/40)
(15) ऐ इन्सानो! तुम सबको बता दो कि हम लोग दुशमनों पर हथियार चलाने वाले को तुम में से दुशमनों को हथियार से मारने वालों को अनाज देंगे। (16/33)
(16) हम अदल व इन्साफ़ करने वाली स्त्रियों का और तुम में से सभा की रक्षा करने वाले राजाओं का सत्कार करेंगे, घोड़े की रक्षा करने वालों को, दुशमनों की फ़ौज को मारने वाली अपनी फ़ौज को और तुम में से जो स्त्रियाँ दुशमनों की फ़ौज के बहादुरों को मारने वाली हों और मुख़्तलिफ़ तरकों वाली हों और मैदाने जंग में दुशमनों को मारती हुई स्त्रियों को अनाज देंगे और उनको कमाहिक़ा इस्तेमाल करेंगे। (16/24)
(17) ऐ दुशमनों को मारने वाले राजा तेरे लिये अनाज प्राप्त हो, तेरे बाज़्ाुओं से दुशमनों को वज्र प्राप्त हो। (16/1)
(18) ऐ बादल की तरह तीरों की बारिश करने वाले सिपहसालार! तेरा तीर को हाथ में लेना और इसको चलाना मंगलकारी हो। (16/31)
(19) वह सिपहसालार जो गले में नीलम की माला पहने हुए है जो दुशमनो को रूलाने वाला है वह हम को सुख देने वाला हो। (16/7)
(20) ऐ बुलन्द इक़बाल सिपहसालार! तेरे हाथ में जो तीर हैं तू उनको कमान में रखकर कमान के दोनों गोशों को मिलाकर बड़े ज़ोर से दुशमन पर छोड़ और तीर दुशमन तुझ पर चलाये तो अपने आप को उनकी ज़द से दूर रखे। (16/9)
(21) ऐ फ़नून जंग में माहिर इनसानो! इस जटाधारी सिपहसालार की कमान कभी भी चल्ले से उतरने न पाये और इसके तीर की नोक कभी न टूटे इस मुसल्लह सिपहसालार का तरकश कभी भी तीरों से ख़ाली न होने पाये उसका तरकश हमेशा तीरों से भरा रहे। मगर इसका तरकश तीरों से ख़ाली हो जाये तो इसको नये तीरों से भर दो। (16/10)
(22) ऐ बहुत ज़्यादा देरिया सींचने वाले सिपहसालार! तेरे हाथ में जो तीर व कमान है तेरे मुतीअ़ जो फ़ौज है तू इस तीर व कमान और फ़तह नसीब फ़ौज केे ज़रिये हमारी सब तरफ़ से हिफ़ाज़त कर। (16/11)
(23) ऐ सिपह सालार! तू अपनी तीर अन्दाज़ कमान के साथ हमारी दूर और नज़दीक सब तरफ़ से रक्षा कर, आप हमारे नज़दीक ही अपने तरकश को तीरों से भरकर धारण कीजिय। (16/12)
(24) ऐ मैदान जंग में चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने वाले तीर कमान से मुसल्लह फ़ौज के सिपहसालार तू अपनी कमान को फैला और नोकदार तीरों को दुशमनों पर चला और उनको हलाक करके हमें दिली राहत देने वाला हो।’’ (16/13)
(25) ऐ कुव्वते बाज़ू रखने वाले फ़ौज के सिपहसालार! तुझे हथियार प्राप्त हों। (16/17)
(26) ऐ राजा! आप हमारे ज़ोर आवर दुशमनों पर फ़तह हासिल कीजिये। (15/2)
(27) ऐ तेज़ हथियारों का इस्तेमाल करने वाले, मज़कूरा बाला औसाफ़ से मौसूफ़ सरदार जिस तरह सूरज की तेज़ किरणें सुबह के वक़्त रात को दूर करके दिन को प्रकाशित करती हैं। इसी तरह तू भी अपने तेज़ स्वभाव से रात की मानिन्द राक्षसों को यक़ीनन् भस्म कर। (15/37)
(28) ऐ राजा! आप हमारे लिये मैदान जंग में दुशमनों पर फ़तह पाने वाले हैंऽह्न आप की फ़ौज मैदाने जंग में कारहाये नुमायाँ करने वाली हो। (15/39)
(29) ऐ राजा! आप अपनी फ़ौज की ताक़त को मुस्तक़िल तौर पर बढ़ायें। (15/40)
(30) ऐ सिपेहसालार! आप अपना जवा दिखायें और मुल्क गीरी कीजिय। (15/52)
(31) ऐ सिपेहसालार! आप ताक़त हासिल करें और इस ज़मीन को अपने दाम तसर्रूफ़ में लायें। दुशमनों को मुँह के बल गिरायें हाथी और फ़ौज के मालिक राजा की मानिन्द आप अपने दुशमनों को निहायत ही दुख देने वाले हथियारों से मारते हुए उनके गले में फाँसी डालें और उनको रूबरू लानत फटकार करें। (13/9)
(32) ऐ सिपेहसालार! आपकी बहादुरों की फ़ौज बिजली की तरह कड़कती और चमकती हुई चारों तरफ़ से दुशमनों की फ़ौज पर हमलावर हो। ऐ सिपेहसालार तू अपनी फ़ौज की ताक़त को बढ़ा और उसको ख़ूब तरबियत कर जिस तरह आग पर घी डालने से शोले बुलन्द होते हैं उसी तरह तू दुशमनों की फ़ौज पर बिजली के हथियार चला। (13/10)
(33) ऐ मेरी बहादुर बीवी! दुशमन तेरी नज़र को नहीं सहार सकता तू अपने आप ही दुशमन की फ़ौज से लड़ती हुई दुशमन के हमलों को रोकती है। (13/26)
(34) ऐ आलिम बाअमल और पुर जलाल महात्मन् आप के घोड़े मंज़िल मक़सूद तक पहुँचाने वाले बड़े सधे हुए दुशमन पर हमला करने के लिये बड़े जोश और ताक़त के साथ रथ को खींचने वाले हैं। (13/39)
(35) ऐ आलिम बाअमल महात्मन्! आप के जिन घोड़ों को चाबुक सवारों ने सधाया हुआ है। आप उनको दुशमनों की फ़ौज के मुक़ाबले में रथ मे जोड़िये। (13/37)
(36) ऐ वेद के जानने वाले राजा! तुम अपने रिआ़या के दुशमनों को आग की मानिन्द तपाओ और अपनी रिआया की मदद से अपने दुशमनों पर फ़तह हासिल करो। (12/16)
(37) राजा को चाहिये कि आग की तरह दुशमनों को तबाह करे। (12/13)
(38) ऐ इन्सानो! तुम्हारा जो सिपहसालार है वह सूरज की मानिन्द आब व ताब वाला हो, वह दुशमनों के हक़ में बर्क़ दरख़्शां हो। ऐसा ही सिपहसालार हमारी फ़ौजों की कमान करे।
(39) जो इन्सान सूरज की मानिन्द दुशमनों से लड़ने वाला हो वही ग्रहस्त आश्रम में दाखि़ल होने के लायक़ है। (13/66)
(40) ऐ शान्ति स्वभाव पुरूष! आप दुशमनों को नीचा दिखने वाले फ़न जंग को सीखें। (12/13)
(41) ऐ राजा तेरा दुशमनों के मुक़ाबले पर जाना मुबारक हो तू अपनी ताक़तवर फ़ौज के साथ बद किरदार दुशमनों की फ़ौज पर हमला कर और उसको तहे तेग़ कर तू दुशमनों के मुल्क को पांमाल करता हुआ वापस आ तू हमें सुख दे। दुशमनों को रूलाने वाला तेरा सिपहसालार तेरे साथ हो। (11/15)
(42) ऐ राजा जिस तरह तेज़ रफ़तार घोड़ा! मैदाने जंग में अपनी जोलानी से ज़मीन को हिला देता है वैसे ही तू भी मैदाने जंग में धूम मचा। (12/18)
(43) ऐ राजा तू कमाले मुहर व मुहब्बत से अपने दुशमनों को पायमाल करके अपनी राज भूमि में इल्म की रोशनी फैलाने की ख़्वाहिश कर। (11/19)
(44) ऐ राजा! तू अपनी फ़ौज के साथ दुशमन के मुक़ाबले पर क़ायम हो। (11/20)
(45) ऐ राजा! जिस तरह हिफ़ाज़त करने वाले आलिम को पौत्र शागिर्द सुख देने वाले आग वगै़रह पदार्थों को हासिल करके वेदों के अर्थ को जानने वाला और तमाम उलूम में माहिर और दुशमनों को मारने वाला और दुशमनों के गाँव को तबाह करके आप के जाह व हशमत को दोबाला करना है, उसी तरह दीगर विद्वान लोग भी आपको विद्या और रोने से तरक़्क़ी दें। (11/33)
(46) ऐ पानी की मानिन्द नेक औसाफ़ रखने वाली स्त्रियो! अगर तुमको सुख भोगने की ख़्वाहिश है तो तुम बड़े बड़े लड़ाई के मैदानों और ताक़त व शुजाअ़त के हाथों में हमारे पहलू बा पहलू क़दम मारो। (11/50)
(47) ऐ सिपेहसालार! जिस तरह मैं मुक़ाबले पर आकर लड़ने वाले, मुख़्तलिफ़ क़िस्म की धमकियाँ देने वाली हथियारों से मुसल्लह हुई दुशमन की फ़ौज को जलती हुई आग की लपेट में गिराता हूँ उसी तरह तू भी ऐसे आदमियों को भस्म किया कर। (11/77)
(48) ऐ सभा और फ़ौज के स्वामी! जो लोग हम से दुशमनी करते हैैं जो हमारे साथ द्वेष करते हैं जो हमारी निन्दा करते हैं जो हम को धोखा दे और मक्कारी करे तो ऐसे तमाम इन्सानों का जलाकर भस्म कर डाल। (21/80)
(49) ऐ राजा! तेरा राज दुशमनों को हलाक करके तेरे लिये निहायत ही ख़ुशी का देने वाला हो। (9/4)
(50) ऐ वीर पुरूष! जिस मैदाने जंग मे तू जाहो हशमत वाले राजा के संगरा मूलका विभाग करने वाला, वज्र की मानिन्द दुशमनों को काटने वाला और प्रजा की रक्षा करने वला हो, इस मैदाने जंग का आप के साथ ये पुरूष इन्तज़ाम करे। (9/5)
(51) ऐ राजा! जिस तरह बाज़्ा हवा में चारों तरफ़ तेज़ी से उड़ता है उसी तरह आप भी हमारे लिये फ़ौज की ताक़त से ताक़तवर हो जाइये। (9/9)
(52) ऐ आलिम इन्सानो! तुम इस राजा की फ़नून जंग में वाक़िफ़यत को ज़्यादा करो ऐ दुशमनों की बेख़कनी करने वाले राजा! आप दुशमनों पर फ़तह हासिल करके इक़बाल मंद हों। (9/11)
(53) ऐ राजपुरूषो! तुम लोग जाह व हशमत के देने वाले सिपेहसालार को मैदाने जंग में फ़तह नसीब करो। (9/12)
(54) ऐ इल्म की ताक़त से आरास्ता मैदाने जंग को जीतने वाले चारों तरफ़ से दुश्मनों की देखभाल करके उनको घेरने वाले लोगो! जैसे तुम लोग चारों तरफ़ चलते हो वैसे ही हम भी चलें। (9/13)
(55) सिपेहसालार को चाहिये कि वह अपनी फ़ौज को तमाम कील काँटे से लैस करके बोली पर चलने के लिय तैयार रखे।
(56) ऐ राजा! मैं राक्षसों के नाश करने के लिय आपको ग्रहण करता हूँ जिस तरह तूने दुष्ट को मारा है वैसे ही हम भी दुष्टों को मारें वह दुष्ट नष्ट हो जाये वैसे हम लोग भी उन सब को नष्ट करें। (9/38)
(57) ऐ सभापति! आप अपनी फ़ौज के साथ अपनी हर एक क़िस्म की ताक़त को बढ़ायें। (8/29)
(58) ऐ काली घटा की मानिन्द फ़ौज के बहादुरो! तुम दोनेां इन तमाम दुश्मनों को जो हमारी फ़ौज से लड़ना चाहें तीर व तफ़ंग से हलाक करो और दुशमनों की जो फ़ौज तुम्हारे सामने आये और जो भी तुम्हारे सामने अकड़फूं करे तुम लोग उनको मार भगाओ। (8/53)
(59) मैदाने जंग में वैदिक विद्या को प्रकाश करने वाला हम को वैदिक और युद्ध की शिक्षा युक्त वाणी से आनन्द देने वाला हो, दूसरा बहादुर मैदान में दुशमनों को पामाल करता हुआ आगे आगे चले। तीसरा बहादुर मैदाने जंग में वीर रस से लड़ने वालों को जोश दिलाता रहे चौथा बहादुर कमाल आनन्द से धर्म के दुशमनों पर फ़तह हासिल करे। (7/44)
(60) ऐ राजन्! जिस तरह मैं बुरे काम करने वाले जीवों को गले काटता हूँ वैसे तू भी काट, मुझ से द्वेष या नफ़रत करने वाले दुशमनों को दूर कर जो मेरे सरीहन् दुशमन हैं उनको अलग कर। (6/1)
(61) ऐ सिपेहसालार! तू तमाम बहादुरों की फ़ौज के दुशमनों को चारों तरफ़ से घेरने के लिये शुमाल जुनूब, मशरिक़ मग़रिब में बाँट। (6/16)
(62) ऐ सभापति! जिस कर्म से बडे़ बड़े घमण्डी दुशमन मारे जायें, इस परम उत्तम दुशमनों को हलाक करने वालो काम के लिये आपको जो कि आला जाह व हशमत के धारण करने वाले हैं और युद्ध वग़ैरह कामों में बाज़ वग़ैरह जानवरों की मानिन्द लपेट मारने वाले हैं, हम लोग आप को स्वीकार करते हैं। (6/32)
(63) ऐ आलमे इन्सान जिस तरह तू धार्मिक विद्वानों में जलवा गर है उसी तरह तू राक्षसों बदकिरदारों को तबाह करने वाला हो जिस तरह तू सब जगह जलवागर होता है उसी तरह तू अपने दुशमनों को हलाक करने वाला बन।
(64) ऐ राजसभा के पालन करने वाले इन्सानो! मैं आप लोगों की पैरवी करता हुआ मैदाने जंग में घमण्डी को नीचा दिखाऊँ जैसे आप राक्षसों और बदकिरदारों को मारने वाले हैं वैसे ही मैं दुशमनों की फ़ौज की ताकत का पता लगाकर बदकिरदारों को दूर करूँ। (5/25)
(65) जैसे बहादुर आदमी मैदाने जंग में अपनी फ़ौज के साथ दुशमनों को पहले ही जाकर घेर लेता है। इसी तरह फ़न महारबा में माहिर ये सेनापति मैदाने जंग में मुकम्मल फ़तह हासिल करे ये सेनापति हर एक क़िस्म के ख़ौफ़ से अलग होकर बिल्कुल आनन्द से मैदाने जंग में क़वाइदान फ़ौज को अच्छी तरह से बोली देता हुआ फ़तह को हासिल करे। (5/27)
(66) ऐ दुशमनों को रूलाने वाले सिपेहसालार! तू मैदाने जंग के लिये अपने धनुष को फैलाने वाला हथियारों के ज़रिये अपने दुश्मनों की ताक़त को पीसकर अपनी रक्षा करने वाला, ज़रा बकतर लगाने वाला सब सुखो को देने वाला है ऐ बहादुर सेनापति! मंजघास से ढपे हुए पहाड़ों की दूसरी तरफ़ के मुल्क में दुशमनों को फ़तह कर। (3/61)
(67) मैं मादी आग और चन्द्र लोग के दुखों को बर्दाश्त करने के क़ाबिल दुशमनों को अच्छी तरह उमदा दलाईल से मुज़यन करूँ। (2/15)
(68) आक़िल इन्सान जीवन का हित करने वाली इस ज़मीन के सहारे से फ़ौज और असलहे सिलसिलावारलेकर जंगजुओं इन्सानों को अपना रोअब और अपनी हशमत दिखाते हुए दुशमनों के आज़ा काटने वाले मैदाने जंग में ग़नीम पर फ़तह पाकर राज को हासिल करते हैं। (1/28)
(69) मैं इस मैदाने जंग को जो निहायत वसीअ़ और दुशमनों को हलाक करने वाला है .... इस हंगामाखे़ज़ मैदाने जंग को अनाज वग़ैरह अशया से ताक़तवर की गयी फ़ौज के साथ जंग के तरीक़ों से अच्छी तरह पाक करता हूँ। (1/29)
(70) जिस तरह मैं इस जंग में जिसमें कि आलिम लोग अच्छे अच्छे पद्धार्थ या आला से आला विद्वानों की संगत को प्राप्त होते हैं। इस जंग में दुशमनों को मारता हूँ, वैसे तुम लोग भी मारो। (1/26)
(71) हम लोग तुम्हारे साथ आकर आला तरीक़े से ग़नीम को शिकस्त दें और भारी लड़ाइयों में सब तरह से फ़तह हासिल करें क्योंकि आप इल्म जंग के जानने वाले हैं। (1/16)
(72) जो बहादुर सवार होते वक़्त घोड़े को सीधा चलाता है और भूखा प्यासा मैदाने जंग में लड़ता और फ़तह पाता है वही राज करने के लायक़ होता है। (27/10)
(73) ऐ सभापति! तेरी मुसल्लह फ़ौज हमारे सिवाये दूसरों को दुख देने वाली हो। (17/11)
(74) ऐ राजा! आप के हथियार हम को छोड़कर बाक़ी दुशमनों को दुखी करने वाले हों। (17/15)
(75) वह जो तमाम इन्सानों में चुस्त व चालाक हो, ताक़तवर बेल की, मानिन्द ख़ौफ़ दिलाने वाला हो, दुशमनों को रात दिन मारने डराने, और रूलाने वाला जरदीद रोज़गार हो। ऐसा बहादुर हम लोगों में से दुशमनों पर फ़तह पाने वाली और दुशमनों को बाँधने वाली फ़ौजों का सिपेहसालार हो। (17/33)
(76) एक जंगजू बहादुरो! तुम हमेशा दुशमनो से लड़ते भिड़ते और उनको दुख देते रहे तुम्हारे हाथ में हमेंशा ही मज़बूत तीर रहें। (17/34)
(77) सिपेहसालार को चाहिये कि वह तोप बन्दूक तलवार और दीगर आतिशीं असलहे से मुसल्लह फ़ौज को हर वक़्त मुस्तैद रखे, वह तमाम असलहे का इस्तेमाल जानने वाला हो, ऐसा सिपेहसालार ही सामने आये हुए दुशमन पर फ़तह पाता है। इसकी कमान तेज़ होती है वह मैदाने जंग का आशिक़ होता है, वह ख़ूब हथियार चलाता और दुशमनों को मारता है ऐसा सिपेहसालार ही एक क़वाइदान फ़ौज के साथ दुशमनों पर फ़तह पाता है।
(78) तू रथ में सवार फ़ौज के साथ दुशमनों को चारों तरफ़ से काटता हुआ फ़तह हासिल कर। (17/36)
(79) ऐ सिपेहसालार! तू अपनी फ़ौज को बढ़ाने वाला है तू बड़ा बहादुर ताक़तवर और शास्त्रों को जानने वाला है तू सुख दुख को बर्दाश्त करने वाला और दुशमनों को बड़ी फुर्ती से मारने वाला है। मैदाने जंग में लड़ने वाले बहादुर आप की आँख के इशारे पर चलने वाले हैं। (17/37)
(80) वह सिपेहसालार जो कि अपनी अक़्ल और ताक़त के ज़ोर से दुशमनों के जत्थों को छिन्न्ा भिन्न्ा करता, उनकी जड़ काटता, उनकी ज़मीन को छीन लेता और अपने हाथ में हथियार लिये रहता है और मैदाने का कारेज़ार में अच्छी तरह दुशमनों को हलाक करता है और उन पर फ़तह पाता है ऐसे सिपेहसालार को तुम इस तरह से हौसला दो और जंग को शुरू करो। (17/38)
(81) इस मैदाने जंग में जहाँपर कि हर एक क़िस्म के जोड़ तोड़ किये जाते हों वह सिपेहसालार जो कि पूरी ताक़त के साथ दुशमनों का बीज नाश करता हुआ और उनको अच्छी तरह पाँव के नीचे रौंदता हुआ और उन पर किसी क़िस्म का रहम न करता हुआ और हर एक किस्म के ग़ैज़ व ग़जब से भरा हुआ दुशमनों की फ़ौज को मग़लूब करता है और उनको आइन्दा लड़ने के क़ाबिल नहीं रहने देता, ऐसा बहादुर शख़्स हमारी फ़ौजों की कमान करे और वही सिपेहसालार हो। (17/39)
(82) मैदाने जंग में दुशमन की फ़ौज को सब तरफ़ से मारती हुई और उन पर फ़तह पाती हुई क़वाइदान फ़ौज का सिपेहसालार उनके पीछे पीछे चले और फ़ौज के तमाम अधीकारों का रखने वाला दायीं तरफ़ और फ़ौज को जोश देने वाला बायीं तरफ़ चले और हवा की मानिन्द तेज़ रफ़तार और जंगजू बहादुर आगे आगे चलें। (17/40)
(83) सिपेहसालार को चाहिये कि सबसे पहले वह मैदाने जंग में जोश दिलाने वाला गीत बाजा के ज़रिये बुलन्द करवाये। (17/41)
(84) ऐ बादलों की तरह दुशमनों को छिन्न्ा भिन्न्ा करने वाले क़ाबिले तारीफ़ सिपेहसालार! आप हमारी फ़ौज के जंगजू बहादुरों के हथियारों को फ़तह नसीब कीजिये, हमारे फ़तह नसीब रथों से जय जय के नारे बुलन्द हों। (17/42)
(85) ऐ फ़तह पाने वाले आलिम लोगो! आप हमारे बूक़लमों रंगों वाले झंडों को अलेहदा अलेहदा रथों पर क़ायम कीजिये। फ़तह का ख़्वाहिशमंद सिपेहसालार और हमारी क़वाइदान फ़ौज दोनों के दोनों ही दुशमनों को मैदाने जंग में पसपा करें। (17/43)
(86) ऐ दुशमनों की जान लेने वाली रानी! तू अपनी औरतों की फ़ौज के दिलों में उत्साह पैदा करे तू उन औरतों की फ़ौज के मुख़्तलिफ़ दस्तों को ग्रहण कर तू अपनी फ़ौज पर अपने दिली मक़ासिद का इज़हार कर और दुशमनों को भस्म कर। (17/44)
(87) ऐ तीर अन्दाज़ी के इल्म में माहिर और वेदों के जानने वाले सिपेहसालार की स्त्री! तू मैदाने जंग की ख़्वाहिश करती हुई दूर देश मे जाकर दुशमनों से लड़ाई कर और उनको मारकर फ़तह हासिल कर तू उन दूर दराज़ के मुल्कों में रहने वाले दुशमनों में से एक को भी मारे बग़ैर मत छोड़। (17/45)
(88) दुशमनों की जो ज़बरदस्त फ़ौज जंग के इरादे से हमारे मुक़ाबले में आये हम इसको काटने वाले हथियारों और तोप वग़ैरह के धुऐं से इस तरह ढाँप दें कि ग़नीम की फ़ौज के सिपाही एक दूसरे को न पहचान सकें। (17/47)
(89) जिस मैदाने जंग में छोटे छोटे बच्चों की तरह चोटी वाले और बगै़र चोटी वाले तीरों की ख़ूब बारिश होती है। वहाँ पर सिपेहसालार ज़ख़्मियों को बख़ूबी ढाढस दे। (17/48)
(90) एक जंगजू बहादुर! मैं तेरे मैदाने जंग में चोट खाने वाले आज़ा को ज़राबकतर वग़ैरह से ढाँपता हूँ .... आलिम लोग तुझे दुशमनों के पायमाल करने के लिये जोश दिलायें। (17/49)
(91) दो सिपेहसालार बिजली और आग की मानिन्द मेरे मुख़ालिफ़ों को उठा उठाकर ज़मीन पर पटखें़। (17/64)
(92) ऐ बहादुरो! तुम बिजली से सुख हासिल करो और बर्तनों में पकाये हुए दाल कढ़ी वगै़रह को हाथ में लेकर जंग व जदल करो। (17/65)
(93) ऐ आलिमो की ताज़ीम के लायक़ और दुशमनों को मारने वाले सिपेहसालार! जिस तरह सूरज आकाश में रहने वाले गरजने वाले और चारों तरफ़ फैले हुए बादल को बगै़र हाथ पाँव के चकनाचूर कर देता है उसी तरह ऐ सिपेहसालार तू भी अपने दुशमनों को ताक़त से मार। (18/69)
(94) ऐ सिपेहसालार तू फ़तह नसीब हो, तेरी फ़ौज हमारे दुशमनों को मुँह के बल गिराये। (18/70)
(95) ऐ सूरज की मानिन्द सिपेहसालार! जिस तरह सूरज पानी से भरे हुए घंघोर घटा से अंधेरे में आकर बादलो को छिन्न्ा भिन्न्ा कर देता है, उसी तरह तू भी ऐसी फ़ौज हासिल कर जो चारों तरफ़ छाये हुए दुशमनों को तितर बितर करके तुझे फ़तह नसीब करे। (19/71)
(96) ऐ सिपेहसालार! जिस तरह सूरज पानी को ऊपर उठाता है उसी तरह तू अपनी फ़ौज को तैयार कर। (20/38)
(97) ऐ सिपेहसालार तू मोर के बालों की मानिन्द बाल रखने वाले उम्दा घोड़ों के साथ दुशमनों पर फ़तह पाने के लिये जा। जानवरों को पकड़ने वाले शिकारी की तरह दुशमन तुझे अपनी कमंद में न फाँस सके तू अपने तीर व कमान के साथ दुशमनों पर फ़तह पाकर वापस आना। (20/53)
(98) ऐ वीर पुरूष! जिस तरह हम हथियारों के ज़रिये दुशमनों के मनसूबों को ख़ाक में मिलाते मुल्कों को फ़तह करते, मैदान जंग में कामयाब होते, दुशमनों की तेज़ रफ़तार फ़ौज को तितर बितर करते हुए चारों तरफ़ फ़तह व नुसरत का डंका बजाते हैं उसी तरह तुम भी फ़तह हासिल करो। (29/39)
(99) ऐ वीर पुरूष! ये जो चल्ले पर चढ़ी हुई कमान के ऊपर लगी हुई ताँत है जो इस तरह से बोलती है जिस तरह कि पढ़ी लिखी बाशऊर स्त्री बोलती है जिसकी तारीफ़ की जाती है और जो इस तरह प्यारी आवाज़ निकालती है। ये जो मैदाने जंग में फ़तह दिलाने वाली है। तुम इसका बाँधना और चलाना सीखो। (29/40)
(100) ऐ वीर पुरूष! जिस तरह लिखी पढ़ी स्त्री प्राण की मानिन्द प्यारे पति को और माता अपने पुत्र को धारण करती है इसी तरह कमान की दो ताँतें दुशमनों को मुन्तशिर करने और दूर भगाने में कामयाब होती हैं। (29/41)
(101) ऐ वीर पुरूष! जो बहुत से ताँतों वाले कमान का मालिक होता है। वह कमान से सम्बन्ध रखने वाले तीरों को तरकश में डाल कर पीठ के पीछे रखता है। मैदाने जंग में ये कमान और ताँत और तीर वग़ैरह चीं चीं की आवाज़ निकालते हैं इसी से बहादुर आदमी चारों तरफ़ फैली हुई दुशमनों की फ़ौज पर फ़तह हासिल करता है। (29/43)
(102) ऐ वीर पुरूषो! वह जिनके बेल ख़ूब मोटे ताज़े और हाथों की मानिन्द हिफ़ाज़त करने वाले और रथों को तेज़ी से ले जाने वाले ख़ूबसूरत रफ़तार वाले और दुशमनों को धमकाते हुए तेज़ रफ़तार हिनहिनाने वाले घोड़े हैं। दुशमनों को हलाक करने वाले ऐसे बहादुरों को तुम लोग दिल व जान से प्यार करो। (29/44)
(103) ऐ वीर पुरूषो! इस जंगजू बहादुर के रथ में ग्रहण करने के क़ाबिल अग्नि, ईंधन, जल वग़ैरह पद्धार्थ और तोप बन्दूक़ और क़बीह वग़ैरह हथियार जिस क़द्र भी हैं उनको देख भालकर रथ में रख ऐसे सुख देने वाले रथ को हम लोग रोज़ प्राप्त हों। (29/45)
(104) ऐ वीर पुरूष! जिस फ़ौज में सिपेहसालार उम्दा हो रथ वग़ैरह तमाम सामान मज़बूत हों जहाँ कस्तूरी वाली गाय के मानिन्द हिरन हों। वहाँ भली प्रकार तीर चलते हैं जो क़वाइद दान फ़ौज बोली पर इधर उधर चलती और बैठती और दौड़ती है। इस फ़ौज के बहादुर पुरूष हमारे लिये ख़ास तौर पर सुख देने का मौजब हों। (29/48)
(105) ऐ घोड़ों को सधाने वाली रानी! जिस तरह वीर पुरूष घोड़ों के जिस्म पर चाबुक लगाकर चलाते हैं और बहादुरों को मैदाने जंग में लड़ाते हैं इसी तरह तू भी मैदाने जंग में जाकर सधे हुए घोड़ों से काम ले। (29/50)
(106) ऐ नक़्क़ारे की तरह गरजने वाले फ़ौज के सिपेहसालार! आप हमारे उयूब को दूर करते हुए हमें बल और पराक्रम दीजिये। फ़ौज को तरतीब दीजिये, दुष्टों को कुत्तों की मौत मारिये आप अपनी फ़ौज को बिजली के हथियारों से मुसल्लह कीजिये। (29/56)
(107) ऐ राजपुरूष! आप हिनहिनाते हुए घोड़ों वाली फ़ौज से हमारी हिफ़ाज़त कीजिये और हमारे रथों पर चढ़े हुए बहादुर पुरूष दुशमनों पर फ़तह हासिल करें। (29/57)
(108) ऐ राजा जिस तरह आप मैदाने जंग में दुशमनों की तमाम फ़ौजों को पसपा करते हैं, दुष्टों को मार कर सुख देने वाले और फ़तह नसीब हुए है, इसी तरह आप सदा ही उनको मारते रहें। (33/66)
(109) ऐ दुशमनों को मारने वाले राजा! आप दुशमनों को मारने वाले और उनको सखाने वाले हैं आप के क्रेाध से दुशमनों की फ़ौज मारी जाती है। (33/67)
(110) हे पाप के दूर करने वाले और रोशनी देने वाले परमातन! आपको नमश्कार हो ऐ परस्तिश के लायक़ परमातन आपको नमश्कार हो, आप की न टलने वाली देवस्था हमारे सिवाये दूसरे दुशमनों को दुख देने वाली हो, आप हम को पवित्र कीजिये।

मैं ज़रूरत नहीं समझता कि जंग व हदल और मार धाड़ के बारे में ज़्यादा मंतर पेश करूँ। मज़कूरा बाला सौ से ज़्यादा मंत्र सिर्फ़ नमूने के तौर पर मैंने यजुर्वेद में से पेश किये हैं और तर्जुमा वही दिया है जो कि स्वामी दयानन्द ने किया है। यजुर्वेद में से इससे कई गुना ज़्यादा मंत्र इसी क़िस्म के कुश्त व ख़ून और जंग व जदल के बारे में मौजूद हैं। ये तो एक वेद का हाल है इसी पर बाक़ी के तीन वेदों का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। कि इनमें एक दूसरे के साथ दंगा फ़साद करने की किस क़द्र तालीम मौजूद होगी। मज़कूरा बाला मंत्रों का सरसरी मुतालेअ़ा करने से ही इस बात का पता लग जाता है कि वेदों में सबसे ज़्यादा तारीफ़ उन्ही लोगों की गयी है जो जंग व जदल करने वाले और अपने दुशमनों के गले काटने वाले हों। जाबजा तीर, तफ़ंग, तोप बन्दूक़ और दीगर आतिशीं असलहे के बनाने और इस्तेमाल करने की ताकीद की गयी है और राजा को हुक्म दिया गया है कि वह ज़्यादा से ज़्यादा फ़ौज भर्ती करे। न सिर्फ़ मर्दों की ही फ़ौज भर्ती करे बल्कि औरतों की फ़ौज भी भर्ती करे ख़ुद भी मैदान में जाकर लड़े। इसकी बीवी और दूसरी औरतें भी जाकर लड़ें। औरतें मर्दों को लड़ाई के लिये तैयार करें और उनको जोश दिलायें। गोली बारूद तीरों की ज़्यादा से ज़्यादा मिक़दार बहम पहुँचायें। तोप बन्दूक़ देने वाली हों इस जंग व जदल में वह ख़ुदा से भी यही दुआ करती जायें कि उनकी ही फ़तह हो और दुशमनों की शिकस्त हो। इन तमाम बातों के मुतालऐ से वेद हमारे सामने मारधाड़ और कुश्त व ख़ून का एक निहायत ही ख़ौफ़नाक मंज़र पेश करता है। हमारे सामने एक ऐसे मैदान जंग का नक़्शा खोल देता है। जिसमें कुश्तों के पश्ते लग रहे हों और चारों तरफ़ मुर्दों की लाशें मरने वालों की चीख़ पुकार, इन्सानों की नीम कटी गर्दनें, उनके टूटे हुए आज़ा मर्दो के क़त्ल विधवाओं की आह वज़ारी यतीमों की फ़रियाद, गाँव की बरबादी, हैवानों की हलाकत, खेतों का जलना, दुशमन की पार्टी के पीने के पानियों में ज़ेहर का मिला देना, खाने की चीज़ों को भी ज़ेहर आलूदा कर देना वग़ैरह वगै़रह तमाम ऐसी ख़तरनाक और वहशीपन की बातें हैं जिनकी कि वेद तालीम देता है। अगर वेद ख़ुदा का कलाम होता तो वह बनी नूए इन्सान के लिये इसी तरह अब्रे रहमत होता जिस तरह कि ख़ुद ख़ुदावन्दे कुद्दूस हज़रत ईसा मसीह के अल्फ़ाज़ में अपने सूरज को नेकों और बदों पर यकसाँ उगाता और उनकी परवरिश करता है। अगर वेद ख़ुदा का कलाम होता तो वह गौतम बुद्ध, हज़रत ईसा मसीह और हज़रत मुहम्मद स0अ0व0 साहब से बढ़कर दुशमनों के साथ शान्ति, दरगुज़र, बुरदबारी, तहम्मुल, प्रेम और मुहब्बत की तालीम देता ताकि दुनिया पर कुश्त व ख़ून का दरवाज़ा बन्द हो जाता और बनी नूए इन्सान आपस में एक दूसरे के साथ मुहब्बत और सुलह से रहना पसन्द करते। ये मारधाड़, कुश्त व ख़ून, दंगा फ़साद, जंग व जदल तो दुनिया मे पहले से ही चला आता है। और अब भी चारों तरफ़ जारी है। अपने हम जिन्सों को हलाक करने के लिये रोज़ नये से नये तरीक़े सोचे जा रहे हैं और नये से नये हथियार तोप, बन्दूक़ गोला, बरछी ईजाद किये जा रहे हैं। ख़तरनाक जहाज़ बनाये जा रहे हैं। खुश्की तरी और हवा में जंग व जदल करने और अपने भाईयों के गले काटने के लिये रोज़ नयी से नयी ईजादें की जा रही हैं। हम अपने चारों तरफ़ आग के उन शोलों को आसमान की तरफ़ बुलन्द हुआ देखते हैं। इन्सानी दुनिया में चारों तरफ शोर महशर बरपा हे। वेद सिर्फ़ यही नहीं कि इस फ़अ़ल के बरखि़लाफ़ आवाज़ नहीं उठाता बल्कि वह इसकी ताईद करता है और तालीम देता है कि अपने हम जिन्सों को क़त्ल करने के लिये नये से नये हथियार, तोप बन्दूक़ जहाज़ गोला बारूद बनाओ, ज़्यादा से ज़्यादा फ़ौज भर्ती करो और अपने दुशमनों की गर्दनें काटो लुत्फ़ की बात ये है कि इधर इस पार्टी को उस पार्टी की गर्दन काटने की तालीम है और इस तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब किया जाता है जो कि दोनों पार्टियों के लिये महकमा रसद रसानी या कसरेट का काम कर रहा है जब ऐसी तालीम को ख़ुदावन्द कुद्दूस की तरफ़ मनसूब किया जाता है तो अक़्लमंदों, मुंसिफ़ मिज़ाजों, सुलह और अमन के तालिबों बनी नूए इन्सान के बही ख़्वाहों के लिये वेद नफ़रत की चीज़ हो जाते हैं। मगर सोचने वाले जब इस बात पर विचार करते हैं कि वाक़ई अगर ख़ुदा इसी क़िस्म का इल्हाम देने वाला है और ऐसी तालीम देकर लोगों को आपस में लड़ाकर तमाशा देखता है तो ऐसे ख़ुदा को स्वामी दयानन्द के अल्फ़ाज़ में दूर से ही सलाम कर देना चाहिये। हमें ऐसे ख़ुदा की मतलक़ ज़रूरत नहीं है। इस तरह बअज़ अमन पसन्द, रहम दिल, मुन्सिफ़ मिज़ाज इन्सान इलहामी कहलाने वाली किताब के अलावा इलहाम देने वाले ख़ुदा को भी साथ ही धक्का दे देते और ख़ुदा की हस्ती से मुनकिर हो जाते हैं। मगर वह लोग जो ख़ुदा की हस्ती पर आज़ादाना विचार करते हैं वह इसकी हस्ती से मुनकिर होने की बजाये इस क़िस्म की किताब को ख़ुदा की किताब नहीं बल्कि वह महज़ इन्सानी दिमाग़ की इख़्तराअ़ बताकर इसको वही पोज़िशन देते हैं जिसकी कि वह दरहक़ीक़त मुस्तहिक़ है। मेरे ख़्याल में ये दूसरा तरीक़ा पहले से ज़्यादा अच्छा और महफूज़ है। जब मैं वेद मे इस क़िस्म की तालीम देखता हूँ जिसका कि ऊपर ज़िक्र किया गया है तो मेरे दिल में सवाल पैदा होता है कि अगर ये ख़तरनाक तालीम दरहक़ीक़त ख़ुदा की तरफ़ से ही दी गयी है तो मुझे इस किताब के साथ ऐसे ख़ुदा को भी परे फेंक देना चाहिये। ये बेहतर है कि मैं दुनिया में जंग व हदल कुश्त व ख़ून मारधाड़, क़त्ल व ग़ारत, लूट मार की तालीम देने वाले, तीर कमान, तोप, बन्दूक और दीगर आतिशीं असलहे के ज़रिये बनी नूअ इन्सान का ख़ून बहाने के लिये इन हथियारों के बनाने की हिदायत करने वाले मर्दों को क़त्ल करवाने, औरतों को विधवा बनाने, बच्चों को यतीम करवाने और मर्दों के साथ औरतों को भी लड़वाने, क़त्ल करवाने, गाँवों को जलाने, खेतों को जलाने, शेरों से फड़वाने, समन्दर में ग़र्क़ करने, दरिन्दों से चिरवाने और अनवाअ़ व अक़साम की अज़ीयतें देकर मार डालने की हिदायत करने वाले ख़ुदा और ख़ुदा की इस क़िस्म की किताब पर ईमान लाने के बगै़र ज़िन्दगी बसर करूँ और ऐसे ख़ुदा और उसकी इस क़िस्म की ख़तरनाक किताब पर लात मार कर नास्तिक, लमहद, देहरिया, और काफ़िर रहकर अमन की ज़िन्दगी बसर करता हुआ मर जाऊँ, बनिस्बत इसके कि मैं इस क़िस्म के ख़ुदा और उसकी इस क़िस्म की ख़ूनी किताब के बोझ को अपने ज़मीर पर रखकर स्वामी दयानन्द के अल्फ़ाज़ में हैवान या दरिन्दा बनूँ। ये पहला ख़्याल है जो कि मेरे दिल में इस वक़्त पैदा होता है जबकि मैं उन लोगों की आवाज़ को सुनता हूँ जो ये कहते हैं कि वेद ख़ुदा का कलाम है लेकिन इसके बाद दूसरा ख़्याल मेरे दिल में पैदा होता है कि मुझे इस क़िस्म की खूनी किताब को ख़ुदावन्दे कुद्दूस की तरफ़ मनसूब नहीं करना चाहिये, बल्कि इन दोनों के दर्मियान एक हद फ़ासिल क़ायम करके वेद पर तो बेशक लात मार देनी चाहिये। लेकिन मुझे इस ज़ाते पाक की हस्ती से मुनकिर नहीं होना चाहिये जो कि मेरी रूह का आख़री सहारा है और जो उन उयूब और इलज़ामात से पाक है जो कि उस पर इस किताब में लगाये जा रहे हैं। ये ख़्याल मेरे लिये ज़्यादा शान्ति दायक है। पस ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ाते पाक और वेद जैसी किताब के दर्मियान हद फ़ासिल क़ायम करना मेरा पहला फ़र्ज़ है इस हद फ़ासिल को क़ायम करके मेरे लिये ये लाज़मी हो जाता है कि मैं वेद को मानूँ या ख़ुदा को। मगर जैसा कि हज़रत ईसा मसीह ने कहा है कि तुम ख़ुदा और मादह परस्ती या रोशनी और तारीकी की एक साथ पूजा नहीं कर सकते हो। इसी तरह मैं ख़ुदावन्दे कुद्दूस और वेद को एक साथ नहीं मान सकता। क्योंकि ये दोनों मुतज़ाद हैं। ख़ुदावन्दे कुद्दूस अगर रोशनी है तो वेद तारीकी है। जैसा कि ऊपर दिखा चुका है। मुझे या तो रोशनी में चलना पड़ेगा या तारीकी में ठोकरें खानी पड़ेंगी। मैं रोशनी को तारीकी पर तरजीह देता हूँ और हर एक आक़िल आदमी ऐसा ही करता है पस मैं ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ाते पाक को वेद पर तरजीह देता हूँ। और इस ज़ाते पाक को अपने लिये काफ़ी समझकर वेद को परे फेंकता हूँ क्योंकि ऐसी किताब को ख़ुदावन्द की तरफ़ मनसूब करना या उसको इसका कलाम बताना निहायत ही ख़तरनाक इलहाद, ख़ौफ़नाक, देहरियत और शर्मनाक झूठ है। जिससे कि हर एक दयानतदार रूह को परहेज़ करना चाहिये।

छठी फ़सल
वेदों पर ईमान की बुनियाद की कमज़ोरी

ऊपर के तमाम मज़मून को पढ़कर कोई दयानतदार शख़्स ये कहने का हौसला नहीं कर सकता कि वेदों के प्रचार से दुनिया में अमन और चैन की बादशाहत क़ायम हो सकती है जबकि वेदों में कुश्त व ख़ून जंग व जदल और मार धाड़ की तालीम मौजूद हो। लेकिन हमारे मुल्क में ऐसे ख़ुश ऐतक़ाद लेाग भी हैं जो अभी तक वेदों को ख़ुदा का कलाम माने हुए उनको दुनिया की अशान्ति दूर करने के मुजर्रब नुस्ख़ा बता रहे हैं। अभी कल का ज़िक्र है कि मैं एक हिन्दी रिसाले का मुतालेअ़ा कर रहा था। इसमें एक ग्रेजूएट का मज़मून मेरी नज़र से गुज़रा जिसके चन्द फ़क़रात का तर्जुमा मुफ़स्सला ज़ैल है
महर्षि दयानन्द का वेद भाष्य हमारे लिये एक बेशबहा मौरूसी जायदाद है जो बनी नूए इन्सान के लिये इस क़द्र मुफ़ीद है कि इसकी क़ीमत लगाना इन्सानी ताक़त से बाहर है इस मज़मून के लिखने वाले को यक़ीन है कि इसकी तरह पढ़ने वालों में बड़ी तादाद ऐसे आला दिमाग़ों की भी होगी कि जिनके डगमगाते हुए ईमान को इस भाष्य ने सहारा दिया होगा। ये सच है कि संसार की मौजूदा शान्ति इस वक़्त दूर होगी जबकि वेद भगवान का प्रकाश दुनिया के हर एक कौने में पहुँच जाये तो ये भी सही है कि ऋषि दयानन्द का वेद भाष्य इस क़िस्म का पायोनियर होने के बाइस इस आलमगीर शान्ति का पेश ख़ेमा होगा। गो आर्य समाज ने इस भाष्य को हर दिल अजीज़ बनाने के बारे मेें अपना फ़र्ज़ अदा किया है मगर फिर भी वह वक़्त दूर नहीं कि वेद का हर एक जगह ने वेद भाषीय की एक कापी को लाज़मी दिलाबदी समझेगा। और मौजूदा ज़माने के वेद भाष्य कार को प्रेम, प्रतिष्ठा और शुक्रगुज़ारी के भाव के साथ याद रखेगा। (नवजीवन बनारस सितम्बर 1912 ई0)
मज़कूरा बाला मज़मून को पढ़कर जो कि एक क़िस्म की ख़ुश एतक़ादी का नतीजा है। कोई भी दयानतदार दरहक़ीक़त शनास शख़्स अफ़सोस किये बगै़र नहीं रह सकता मज़मून निगार इस बात को अपनी ज़िन्दगी का एक लाज़मी जुज़ू क़रार देता है वह इस ईमान को जो कि दरिया के किनारे की रेत पर क़ायम है, घास के तिनकों के बन्द बाँधकर सहारा देने का तालिब हो और वह इस बात पर रज़ामन्द नहीं है कि अपने ईमान की बुनियाद को रेत पर से हटाकर चट्टान पर क़ायम करे। अगर वह इस बात को तसलीम कर ले कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है बल्कि वह हमारे प्राचीन आबाव अजदाद के ख़्यालात का मजमूअ़ा है जिनमे से बअज़ ख़्यालात बहुत अच्छे हैं और बअज़ बिल्कुल नाक़िस और वहशियाना हैं तो इसके ईमान की बुनियाद हमेशा के लिये एक चट्टान पर रखी जा सकती है मगर चूँकि इसका ईमान ये है कि वेद ख़ुदा का कलाम है। इसलिये जब इसके सामने कोई ऐसी बात वेद में निकलती है जो ख़ुदा की ज़ात पर बदनुमा धब्बा हो तो वह अंधेरे में इधर उधर हाथ पाँव मारता और सहारा ढूँढता है। ताकि इसका ईमान डगमगा न जाये ये एक सख़्त क़ाबिले रहम और तरसनाक हालत है। इससे भी बढ़कर हंसी की बात ये है कि स्वामी दयानन्द का भाष्य डगमगाते हुए ईमान को सहारा देता है। मैं कह सकता हूँ कि स्वामी दयानन्द के भाषीय का कमाहिक़ा मुतालेअ़ करने से पेशतर वेदों पर मेरा ईमान बड़ा मज़बूत था। लेकिन जिस वक्त मुझे स्वामी दयानन्द के भाषीय का तर्जुमा करना पड़ा और इसके लफ़ज़ लफ़ज़ को अपने क़लम में से गुज़ारना पड़ा तो वेदों के ख़ुदा का कलाम होने पर मेरा जो विश्वास था वह काफूर हो गया। ये शायद मुबालेग़ा नहीं होगा अगर मैं ये कहूँ कि स्वामी दयानन्द के वेद भाषीय को बग़ैर पढ़कर कोई भी दयानतदार शख़्स वेदों को ख़ुदा का कलाम नहीं मान सकेगा। तावक्तेकि वह रियाकारी से काम न ले नामानिगार मज़कूर का ये ख़्याल कि दुनिया की मौजूदा अशान्ति इसी वक्त दूर होगी जबकि वेद भगवान का प्रकाश दुनिया के कोने काने मे पहुँच जायेगा एक ऐसा ख़्याल है कि जिसको बेबुनियाद साबित करने के लिये कुछ ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि इस क़िस्म के ख़्याल की तरदीद मैं ऊपर बयान कर चुका हूँ वह लोग जो दिल के मज़बूत और सच्चाई के तालिब नहीं हैं जो इस उसूल को नहीं मानते कि सच्चाई को क़बूल करना चाहिये और झूठ को छोड़ देना चाहिये, जब उनको स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य में ऐसी बातों का पता लगता है जिनसे कि उनके ईमान को लग़ज़िश होती हो तो वह अपने ईमान की बोसीदगी पर ग़ौर नहीं करते बल्कि वह स्वामी दयानन्द पर ये फ़तवे देते हुए सुने जाते हैं कि स्वामी दयानन्द मोटी अक़्ल का आदमी था और कि वह दरअसल वेदों को नहीं समझा था। ये ख़्याल मुहकिक़क़ लोगों का ख़्याल नहीं है बल्कि ऐसे लोगों का ख़्याल है जो वेद को मुल्की नसली और पैदाईशी जज़्बात की बिना पर इसी तरह गोद से लगाये रखना चाहते हैं जिस तरह कि मामता की मारी हुई माँ अपने मुर्दा बच्चे को अपनी छाती से अलग करने के लिये तैयार नहीं होती ख़्वाह इसको ये भी मालूम हो जाये कि बच्चा मर चुका है वह लोग जो ऐसी मामता का शिकार हो चुके हैं वह इस बात पर रज़ामंद हैं कि स्वामी दयानन्द को मोटी बुद्धि का आदमी बतायें लेकिन वह इस बात के लिए मुतलक़ तैयार नहीं होंगे कि वेदों के कलामे इलाही होने में शक करें मिस्टर ह्यूम स्पेन्सर के अल्फ़ाज़ में पैदाईशी या नस्ली तअस्सुब की ये एक उम्दा मिसाल है और इसमें वह जज़्बात भी शामिल हैं जो कि पुरोहितों की ग़्ाुलामी की वजह से पैदा हुए हैं। मिस्टर हरबर्ट के अल्फ़ाज़ में वेदों की कुंजी हमेशा पुरोहितों के हाथ में रही और उन्होंने इस बात को कभी गवारा नहीं किया कि इस क़िफ़ल को उनके सिवाये कोई दूसरा शख़्स हाथ लगा सके पुरोहित क्लास ने अवामुन्नास को अपनी ग़्ाुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ने के लिये इस ढकोसले को हमेशा बतौर हथियार के इस्तेमाल किया कि वेद एक ऐसी किताब है जिसको कि ख़ुदा बोलता है और कि वेद को पढ़ने का इस्तहक़ाक़ सिवाये उनके किसी दूसरे को नहीं स्वामी दयानन्द ने बड़ी जुरअत और दिलेरी से इस क़िफ़ल पर हाथ डाला और इसको तोड़ कर रख दिया। स्वामी दयानन्द की ये दिलेरी बनी नूए इन्सान के शुक्रिया की मुस्तहिक़ है। मगर स्वामी दयानन्द के बाद नयी पुरोहित क्लास पैदा हुई। इसने वेदों के साथ स्वामी दयानन्द के भाष्य को भी अज़सरे नौ क़िफ़ल लगा दिया और ये ढकोंसला घड़ा कि स्वामी दयानन्द के भाष्य को समझने के लिये भी वेद, वेदांग, दर्शन शास्त्र, दुनिया की पुरानी ज़बानें, मग़रिबी फ़लसफ़े और साईन्स तमाम तवारीख़ वग़ैरह पढ़ने की ज़रूरत है। स्वामी दयानन्द के भाष्य को समझने के लिये उन्होंने इसी क़िस्म की दूसरी शराईत भी पेश कीं जिनका मतलब सिवाये उसके कुछ नहीं था कि न नौ मन तेल हो न राधा नाचे, इसी तरह वेद बदस्तूर साबिक़ अंधे ईमान की चीज़ बने रहे इसमें शक नहीं कि अगर स्वामी दयानन्द के वेद भाषीय का दुनिया की आम फ़ह ज़बानों में तर्जुमा हो जाये, तो ये इस अंधे ऐतक़ाद को उड़ाने के लिये कि वेद ख़ुदा का कलाम है बड़ा ज़बरदस्त ज़रिया साबित होगा। उस अन्धे ऐतक़ाद का ही नतीजा था कि वुस्ता ज़माने में हिन्दुस्तान में जिस क़द्र बुरे से बुरे फ़िरके़ पैदा हुए उन्होंने अपनी बदअख़्लाक़ी की बुनियाद वेद के ही किसी न किसी मंतर पर क़ायम की थी जिसका कि वह अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ तर्जुमा करते थे और जिन लेागों ने बुद्धों को महज़ इस बिना पर तबाह किया था कि वह वेदों से मुनकिर थे उन्होंने भी अपने इस क़िस्म के फ़तवों के लिये वेदों को ही बतौर हथियार के इस्तेमाल किया। स्वामी दयानन्द ने अगरचे पुरानी तफ़ासीर को वाम मार्गियों की तफ़ासीर कहकर रद किया है। लेकिन ख़ुद स्वामी दयानन्द ने वेदों को जिस शक्ल मे पेश किया है वह सख़्त ख़तरनाक है गो मौजूदा हालात हैं इसका ख़तरा चन्दाँ महसूस न किया जाता हो लेकिन अगर ये तालीम ऐसी क़ौम के हाथ में आ जाये जो कि बरसरे हुकूमत हो या इस तालीम को मानने वाली क़ौम बरसरे हुकूमत हो जाये तो इस वक़्त स्वामी दयानन्द का भाषीय दो धारी तल्वार का काम देगा क्यांेकि इसमें उन लोगों के क़त्ल के लिये काफ़ी से ज़्यादा फ़तवे मौजूद हैं जो कि वेदोंके मानने वालों के दुशमन हों या जिनको वेदों के मानने वाले अपना दुशमन समझते हों यहाँ तक कि ऐसे दुशमनाने धर्म को उलटा करके ज़िन्दा आग में जलाने शेरों से फड़वाने और दरिन्दों से चरवाने की सज़ा तजवीज़ की गयी है जैसा कि मैं पीछे दिखा चुका हूँ। इस ख़तरे की शिद्दत और भी दोबाला हो जाती है जबकि इस बात पर ग़ौर किया जाता है कि वेदों के मंत्र एक ऐसी ज़बान में हैं जिसको वेद को ख़ुदा का कलाम मानने वाले ‘‘यौगिक’’ कहते हैं। अगर मुझे यौगिक के लिये उर्दू का कोई आम फ़हम लफ़ज़ इस्तेमाल करना हो तो मैं इसके लिये ‘‘मोम की नाक’’ का लफ़ज़ इस्तेमाल करूँगा। मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में इबारत की इस पैचीदगी की चाबी हमेशा पुरोहित के हाथ में रहती है और पुरोहित का इख़्तियार है कि वह इस मोम की नाक को जिस तरफ़ चाहे फेर दे स्वामी दयानन्द ने ऋग्वेद आदि भाष्य भूमिका में इस बात पर जो बहस की है वह एक दिलचस्प मुतालेअ़ा है जब महीधर एक मंत्र पर से पर्दा उठाता है तो वह हमारे सामने एक निहायत ही फ़हश नज़ारा पेश करता है। जब इसी मंत्र पर से साइन आचारज पर्दा उठाता है तो वह कुछ और ही दिखाता है जब इसी मंत्र पर से स्वामी दयानन्द पर्दा उठाता है तो वह कुछ और ही नज़ारा पेश करता है हक़ व हक़ानियत का मितलाशी जब एक ही मंतर को मुख़्तलिफ़ पुरोहितों के हाथ में छलावे की तरह रंग बदलता हुआ देखता है तो वह इस नतीजे पर पहुँचने के बगै़र नहीं रहता कि ये महज़ भानुमति का सा तमाशा है जिसमें कि खेलने वाले अपने हाथ की चालाकी से एक ही गोली के मुख़्तलिफ़ रंग बदल कर दिखा रहे हों। पुरोहित लोग वेद मंतर की इस बूक़ल्मूनी को इबारत के ‘‘यौगिक’’ होने की तरफ़ मनसूब करते हैं लेकिन अगर बग़ौर देखा जाये तो कहना पड़ता है कि ये एक ऐसी बात है जो वेद मंतरों के सख़्त धोखे देह और सख़्त नाक़ाबिले ऐतबार होने पर दलील है और कि ऐसी किताब पर जो छलावे की तरह रंग बदल सकती हो अपने ईमान की बुनियाद रखना या उसको ख़ुदा का कलाम मानना सख़्त मुज़िर और ख़तरनाक खेल है। स्वामी दयानन्द ने इस हर वक़्त लर्ज़ा रहने वाली छत को अपने वेद भाष्य के ज़रिये थोनियों और बल्लियों से क़ायम करने की कोशिश की है। लेकिन बअज़ मुक़ामात पर स्वामी दयानन्द ने भी वेद मंतरों के इस नंग को ढाँपने में जो कि दरहक़ीक़त वहाँ पर मौजूद है अपने आप को बेदस्त व पा पाया है इसकी कुछ मिसालें ऊपर दी जा चुकी हैं। यहाँ पर चन्द मिसालें और पेश करता हूँ यजुर्वेद का चौबीसवाँ अध्याय स्वामी दयानन्द के अल्फ़ाज़ में यूँ है।
चौबीसवाँ अध्याय
मंत्र 1 -
तेज़ रफ़तार घोड़े, मारख़ोर बकरे, नील गाय का देवता सूरज है। काली गर्दन वाले पशु का देवता अग्नि है। दाग़दार पैशानी वाली भेड़ का देवता सरस्वती है, नीची गर्दन करके, तिर्छी टाँगें करके चलने वाले पुशओं का देवता अश्वनी है सोम और पूशन है काले रंग वाले तन्दख़ू बायें और दायें तरफ़ सफ़ेद धारियों वाले या बिल्कुल सियाह धारियों वाले पशुओं का देवता यम है पाँव जोड़ों के पास बहुत से बाल रखने वाले पशुओं का देवता तूशटा है जिसकी दुम पर सफ़ेद दाग़ हों इस पशु का देवता दायू है। बगै़र बहार आये के साँडे जुफ़ती करके हमल असक़ात करने वाली गाय का और छोटे क़द और टेढ़े तिरछे आज़ाओं वाले पशु का देवता विष्णु है। इन तमाम पशुओं को अच्छे कर्म करने वाले इन्सान की जाहो हशमत के लिये कमाहिक़ा काम में लाना चाहिये।
मंत्र 2 -
सुर्ख़ और सुर्ख़ी माइल सियाह रंग वाले और बेर की मानिन्द अरग़वानी रंग वाले पशुओं का देवता सोम है। नेवले की मानिन्द ख़ाकी रंग वाले या तोते की मानिन्द हरे रंग वाले पशुओं का देवता वरूण है। जौड़ों पर सफ़ेद दाग़ों वाले, सारे जिस्म पर सफ़ेद छींटों वाले और कहीं सफ़ेद दाग़ों वाले पशुओं का देवता ब्रहस्पति है जिनके तमाम जिस्म पर छींट की मानिन्द दाग़ हों जिनके रंग बिरंग के दाग़ हों जिनके मोटे मोटे दाग़ हों उन सब पशुओं का देवता मित्र और वरूण है।
मंत्र 3 -
ख़ूबसूरत बालों वाले, बिल्कुल पाक व साफ़ बालों वाले, चमकदार बालों वाले पशुओं का देवता सूरज और चाँद है। सफ़ेद रंग वाले, सफ़ेद आँखों वाले सुखर रंग वाले पशुओं का देवता पशुपति रूद्र है। जिनसे काम लिया जाता है ऐसे पशुओं का देवता वायु है। मोटे जिस्म वालों का देवता प्राण वायु है। आसमानी रंग वाले पशुओं का देवता मेघ है।
मंत्र 4 -
पूछने के लायक़ दायें बायें नीचे ऊपर से आहट पाकर चौंकन्ने हो जाने वाले पशुओं का देवता वायु है। फलों को खाने वाले, लाल परों वाले चंचल आँखों वाले पशुओं का देवता सरस्वती है जिसके कान पर इंजीर की तरह के दाग़ हों जिसके कान सूखे हुए हों जिसके कान सुनहरी रंग के हों, ऐसे तमाम पशुओं का देवता तुष्टा है। काली गर्दन वाले सफ़ेद जोड़ों वाले, मोटी टाँगों वाले, पशुओं का देवता पोल और बिजली है। मसताना चाल वाले, आहिस्ता आहिस्ता चलने वाले तेज़ चलने वाले पशुओं का देवता औशाम है।
मंत्र 5 -
तमाम सनअ़त व हरफ़त में काम आने वाली ख़ूबसूरत भेड़ों का देवता दशोये देव है। नीची आवाज़ वाली ऊँची आवाज़ वाली और मध्यम आवाज़ वाली तीनों क़िस्म की भेड़ों का देवता आदनी (पृथ्वी) है। नामालूम भेड़ और धारण करने के लायक़ एक ही रंग वाली छोटी छोटी बछड़ियाँ विद्वानों की स्त्रियों के लिये जाननी चाहियें।
मंत्र 6 -
अकड़ी हुई गर्दन वाले पशुओं का देवता रूद्र है। मुफ़ीद रंग वाले और आगे से टक्कर मारने वाले पशुओं का देवता आदित्य है। आबनी रंग वाले पशुओं का देवता मेघ है।
मंत्र 7 -
बुलन्द क़द ख़ूबसूरत और छोटे क़द वाले पशुओं का देवता बिजली और पून है। ऊँचे क़द वाले शेहज़ारे और बारीक पीठ वाले पशुओं का देवता सूरज और वायु है। तोते के रंग वाले तेज़ रफ़तार चितकबरे पशुओं का देवता मारूत है, काले रंग वाले पशुओं का देवता पूशन (मेघ) है।
मंत्र 8 -
मज़कूरा बाला दो रंगों वाले पशुओं का देवता वायु और बिजली है। छोटे क़द वाले बेलों का देवता सोम और अग्नि है। बांझ गाय का देवता मित्र और वरूण है इधर उधर से हाथ लगी हुई गाय का देवता मित्र है।
मंत्र 9 -
काले रंग वालों का देवता अग्नि है। नेवले के रंग वाले पशुओं का देवता सोम है। सफ़ेद रंग वाले पशुओं का देवता वायु है। जिन पर कोई ख़ास निशान न हो उनका देवता अदिति है। जिनका सिर्फ़ एक ही रंग हो उनका देवता पवन है। छोटे बछड़े और बछड़ियों का सूरज वग़ैरह की किरणों से काम लेने वाला जानना चाहिये।
मंत्र 10 -
काले रंग वाले पशु का देवता भूमि है। धुयें के रंग वालों का देवता अंतरिक्ष है। अच्छी आदतों वाले, पढ़ने वाले सफे़दी माइल पशुओं का देवता बिजली है। जो मंगल कारी पशु हैं वह दुख से पार उतारने वाले हैं।
मंत्र 11 -
मौसम बसन्त में धुऐं के रंग वाले मौसम गर्म में सफ़ेद रंग वाले मौसम बरसात में काले रंग वाले, मौसम सर्मा में लाल रंग वाले, बर्फ़ के मौसम में मोटे ताज़े और निकलती सर्दी में ज़र्दी माइल सुर्ख़ रंग वाले पदार्थों को हासिल करना चाहिये।
मंत्र 12 -
तीन भेड़ों वाले गायत्री के लिये पाँच भेड़ों वाले त्रिअष्टप अर्थात् जिस्म मन और आत्मा के लिये विनाश न होने वाली और संसार में सुख को देने वाली क्रिया करें जिनके तीन बछड़ें हों वह अनोष्टप अर्थात पीछे से जो क्रिया की जाती है उसको रोकने के लिये तीन करें और जो अपने पशुओं से ज़िन्दगी की चौथी मंज़िल को हासिल करने वाले हैं वह वही काम करें जिनसे कि आनन्द बढ़े।
मंत्र 13 -
जो इन्सान वार्ट छन्द के ला दो जानवरों को, ब्रहमी छन्द के लिये साँड को, ककूप छन्द के लिये दूध देने वाली गाय को स्वीकार करते हैं वह सुख को हासिल करते हैं।
मंत्र 14 -
काली गर्दन वाले पशुओं का देवता अग्नि है, सबका धारण पोषण करने वाले पशुओं का देवता सोम है। नीची गर्दन करके चलने वाले पशुओं का देवता सादता है। छोटी छोटी बछड़ियों का देवता सरस्वती है। काले रंग वालों का देवता पोषण है। जो पूछने के क़ाबिल हैं उनका देवता मारूत (मनुष) है जो बहुत से रंगों वाले हैं उनका देवता दुशवाये देवा तमाम विद्वान हैं जो ख़ूब चमकदार हैं उनका आकाश और पृथ्वी है।
मंत्र 15 -
मज़कूरा बाला अच्छी तरह चलने वाले पशुओं का देवता इन्द्र और रागनी है जो ज़मीन जोतनेवाले हैं उनका देवता वरूण है। जो इन्सान की तरह मुख़्तलिफ़ अक़साम व निशान वाले और ईज़ा रसाँ पशु हैं उनका देवता प्रजापति है।
मंत्र 16 -
इन सब जानवरों का देवता वायु और बिजली है। अच्छे सींग वालों का देवता महेन्द्र है। मुख़्तलिफ़ रंग वाले पशुओं का देवता विश्वकर्मा है। सब को अच्छे साफ़ सुथरे रास्तों में आना जाना चाहिये।
मंत्र 17 -
शान्ति स्वभाव पैदा करने वाले, माता पिता के लिये नेवले की मानिन्द ख़ाकी रंग वाले और सभा में बैठने वाले बुज़्ाुर्गों के लिये काले रंग वाले और धुऐं के रंग वाले और ताक़त देने वाले जिन्होंने अग्नि विद्या ग्रहण की है। उन बुज़्ाुर्गों के लिये काले रंग वाले और ख़ूब मोटे ताज़े तीन क़िस्म के निशान वाले पशु हैं।
मंत्र 18 -
ऐ इन्सानो! तुम को जो शोना सेर देवता वाले, खेती करने वाले, आने जाने वाले, हवा की मानिन्द गुण रखने वाले रंग वाले, सूरज की मानिन्द प्रकाशमान, सफ़ेद रंग वाले पशु बताये हैं, उनको अपने कारोबार में लाओ।
मंत्र 19 -
जानवरों को जानने वाला मौसम बसन्त के लिये टटीरी, मौसम गर्मा के लिये चिड़ियों, मौसम बरसात के लिये तीतरों, मौसम सर्मा के लिये बत्तख़ों, बर्फ़ के मौसम के लिये कीकर नाम के जानवरों और निकलती सर्दी के लिये बकर नाम के जानवरों को भली प्रकार हासिल करता है।
मंत्र 20 -
जिस तरह समन्दर जानवरों को जानने वाला अपने बच्चों को मारने वाले शिशुमार जानवरों को और मेख के लिये मेंढकों को पानी के लिय मछलियों को और कलीप के नाम के जानवरों को सूरज के लिये और मगरमच्छ और घड़ियाल को वरूण देवता के लिये हासिल करता है। इसी तरह तुम भी हासिल करो।
मंत्र 21 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह जानवरों के गुणों को ज्ञान रखने वाला मनुष चाँद या सोम के लिये हन्स को हवा के लिये, बगुलों को इन्द्र और रागनी के लिये, सारसों को मित्र के लिये, जल काग को वरूण के लिये, चकवे चकवी को भली प्रकार हासिल करता है, इसी तरह तुम भी करो।
मंत्र 22 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह जानवरों के गुणों को जानने वाला मनुष आग के लिये मुर्ग़ों को बगै़र फूल के दरख़्तों के लिये आतुओं को रागनी और साम के लिये नीलकंठ को सूरज और चाँद के लिये मोरों को, मित्र और दो दिन के लिये कबूतरों को अच्छी तरह हासिल करता है इसी तरह तुम भी करो।
मंत्र 23 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह जानवरों का काम जानने वाला मनुष्य जाहो हशमत के लिये बटेरों को प्रकाश के लिय कालक नाम जानवर को, विद्वानों की स्त्रियों के लिये गौओं को मारने वाले जानवरों और विद्वानों की बहनों के लिये कोलेक नाम के जानवरों और आग की मानिन्द वर्तमान और घर वालों की परवरिश करने के लिये राशन पक्षनों को हासिल करता है, उसी तरह तुम भी करो।
मंत्र 24 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह वक़्त का जानने वाला दिन के लिये नर्म और आवाज़ निकालने वाले कबूतरों, रात के लिए सीचापू नाम जानवरों, दिन रात के मिलने के दोनों वक़्तों के लिये जतू नाम के जानवरों, महीनों के लिये काले कौओं और साल के लिये बड़े ख़ूबसूरत परों वाले पक्षियों को अच्छी तरह हासिल करता है इसी तरह तुम भी करो।
मंत्र 25 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह भूमि के जानवरों के गुण जानने वाला पुरूष ज़मीन के लिये चूहों, अंतरिक्ष के लिए एक क़तार के उड़ने वाले पक्षियों प्रकाश के नाम के जानवरों, पूरब वग़ैहर दिशाओं के लिये नेवलों और कोनों की दिशाओं के भूरे रंग के नेवलों को भली प्रकार हासिल करता है, उसी तरह तुम भी करो।
मंत्र 26 -
ऐ इन्सानो! जिस तरह पशुओं के गुण को जानने वाला अग्नि वगै़रह के लिये रश जानी के हिरणों, प्राण वगै़रह रोरों के लिये रूजा नामी पशुओं बारह महीनों के लिये नेंगों नाम के पशुओं, तमाम विद्वानों के लिये पृष्ट जाती के हिरनों और सधी को हासिल करने वाले विद्वानों के लिए कलंकों को अच्छी तरह हासिल करता है, उसी तरह तुम भ्ी करो।
मंत्र 27 -
ऐ राजा! जो इन्सान साहबे कुदरत के लिये और आप के लिय प्रशिष्ट नामी हिरन को सतर के लिये सफ़ेद रंग के हिरनों को वरूण के लिय भेंसों को ब्रहस्पति के लिय, नील गाय को और तूष्टा के लिये ऊँटों को भली प्रकार हासिल करता है, वह माला माल होता है।
मंत्र 28 -
जो इन्सान प्रजा पाने वाले राजा के लिये पुरूषों और हाथियों को बानी के लिय पलशी नाम के जीवन आँख के लिये मुशकान नामी जन्तुओं का उनके भँवरों को हासिल करता है वह मज़बूत हिसों वाला होता है।
मंत्र 29 -
प्रजा की पालना करने वाले और इसके सम्बन्धियों के लिये वायु और वायु से सम्बन्ध रखने वाले पद्धार्थों के लिये नील गाय, वरूण देवता के लिय जंगल का मेंढा, इन्साफ़ करने वाले के लिये काला हिरन, राजा के लिए शर के लिये बन्द और लाल हिरन श्रेष्ठ इन्सान के लिये नील गाय, बाज़ के लिय बत्तख़, नीले रंग के छोटे कीड़े के लिए छोटा, कीड़ा, बालकों को मारने, वाले शिशुमार समन्दर देवता के लिये और सरबफ़लक पहाड़ों के लिय हाथी बनाया गया है।
मंत्र 30 -
क़ाबिले नफ़रत इन्सान का देवता प्रजापति है। छोटे कीड़े शेर और बिल्ली धारण करने वाले के लिये हैं। आकाशा में उड़ने वाली सफ़ेद चील, धंकश जानवर का देवता अग्नि है। चड़ूटा क़िस्म की चिड़ियों, लाल साँप जो कि तालाब में रहता है, उनका देवता तूष्टा है। और सारस बानी के लिए जानना चाहिये।
मंत्र 31 -
कलिंग, जंगली बकरा, नेवला, इन सबका देवता सोम है, ख़ास ताक़त रखने वाले पशुओं का देवता पोषण है। ख़ास और आम गीदड़ जाहो हशमत वाले पुरूष के लिए गोरा हिरन, ख़ास क़िस्म का हिरन या किसी दूसरी क़िस्म का हिरन और ककट नाम का हिरन और चकूमी अगर उनवासी के लिये या सने पीछे सनाने वाले के लिय कमत किये जायें तो बहुत काम करने क़ाबिल हों।
मंत्र 32 -
बगुली का देवता सूरज है, पपीहे, सरज, शयांडक, जानवरों का देवता मित्र है, तोती और तोते का देवता सरस्वती है। ख़रगोशनी का देवता भूमि है। शरे का भेड़िया या साँप सबके सब ग़्ाुस्से वाले हैं। शुद्धि करने वाला शिवा जानवर और इन्सान की तरह बोलने वाले जानवर का देवता समन्दर है।
मंत्र 33 -
ख़ूबसूरत परों वाले जानवर का देवता मेघ है। अज़्दहा, कठफोड़े का देवता वायु है। पंज राज नामी जानवर बड़े बड़े पदार्थों और कलाम की हिफ़ाज़त करने वाले के लिये हैं अलज नाम के जानवर का देवता अंतरिक्ष है। बत्तख़ जल काग मछली वग़ैरह का देवता समन्दर है। कछवे का देवता प्रकाश और भूमि है।
मंत्र 34 -
पुर्ष मुर्ग का देवता चाँद है। गोह और सारस दरख़्तों से तअल्लुक़ रख्ने वाला कठफोड़ा मुर्गा़ वग़ैरह का देवता सावता है। हंस का देवता वायु है। मगरमच्छ के बच्चे और मगरमच्छ और दीगर आबी जानवरों का देवता समन्दर है। ख़रगोशनी लजा के लिये जाननी चाहिये।
मंत्र 35 -
हिरनी दिन के लिए, मेंढक, चूहा, तीतरी, साँपों के लिये जंगल के लोपाश नामी जानवरों का देवता अश्व है। काले रंग का हिरन रात के लिये है। रीछ और जतू नाम का पुश्वा और शोशीलका पक्षी वे सब इन्सानों के लिये अंगों के सुकेड़ने वाला जानवर विष्णु देवता के लिये।
मंत्र 36 -
कोकिला पक्षी पन्द्रहवाड़ों के लिय रश जाती का हिरन और ख़ूबसूरत परों वाला मोर को देवता गंधरू है। आबी जानवरों का देवता जल है। कछवे मुर्ग कंुडर नाची और गोतिनका जंगली पशुओं का देवता सूरज है। काले रंग के पशुओं को मरीतों के लिये जानना चाहिये।
मंत्र 37 -
बारिश को बुलाने के वाली मेंढकी मौसम बसन्त के लिये चोमिया है। कश नाम का पशु और मांथाल नामी पशु पालना करने वालों के लिये हैं, बिल के लिय बड़ा साँप है, टटीरी, कबूतर, उल्लू, ख़रगोश, जंगली मेंढा, दरों देवता के लिय जानना चाहिये।
मंत्र 38 -
ख़ूबसूरत परों वाले जानवरों को मौसमों के बतलाने के लिये ऊँट और दीगर ज़ोरआवर पशु, लटकन वाला बकरा सबके सब बुद्धि के लिये जानने चाहियें नील गाय, जंगल के ख़ास हिरन, रूद्रदेवता वाले हैं। कोई नाम का जानवर, मुर्ग़ा कव्वा, घोड़ों के लिये और कोकिला भली प्रकार काम लेने के लिय जानना चाहिये।
मंत्र 39 -
आपिये और तेज़ सींगों वाला गेंडा, तमाम विद्वानों के लिये काले रंग का कुत्ता, बड़े कानों वाला गधा, और सियाह गोश सब के सब दुष्टों के लिये सूर राजा के लिये शेर मारूत देवता के लिये गिरगिट पपीहा, और दीगर जानवर चाँद मारी करने वालों के लिये और पृष्ट की क़िस्म के हिरन विद्वानों के लिये जानना चाहियें।’’
यजुर्वेद का ये तमाम अध्याय एक अजीब क़िस्म की चैस्तान है। कोई नहीं कह सकता कि पुरोहित के हाथ में पड़कर ये दोधारी तलवार किस तरफ़ चल सकती है। ख़ुद स्वामी दयानन्द भी इस पर कोई रोशनी नहीं डालना चाहता, या नहीं डाल सका। वह सिर्फ़ इतना ही कह कर चुप हो जाता है कि इस पृकरन में देवता पद से इस पद के गुण पोग से पशु जानने चाहियें। स्वामी दयानन्द का ये क़ौल भी बज़ाते ख़ुद एक चैस्तान है। अगर पुराने मुफ़स्सिरीन में से किसी मुफ़स्सिर की बात पर ऐतबार किया जाये तो वह हमें इस का फ़ौरी हल ये बतायेगा कि इस अध्याय में मुख़्तलिफ़ देवताओं के नाम पर हैवानों के ज़िबह करने की तालीम है। स्वामी दयानन्द ने भी अपनी इबतदाई तसानीफ़ में इस हल की ताईद की है। अगर इस हल को सही न माना जाये तो इस अध्याय का एक एक मंतर मतलाशी हक़ के सामने दर्जनों ऐतराज़ पैदा करने का मोजब होता है। जिसका तसल्ली बख़्श जवाब न तो स्वामी दयानन्द दे सकता है न कोई दूसर मुफ़स्सिर मसलन् अध्याय के पहले ही मंतर में मुख़्तलिफ़ देवताओं की तरफ़ मुख़्तलिफ़ रंग के पशुओं को मनसूब किया गया है। और ऐसी गाय को जो हामला होने की सूरत में साँड से हफ़ती करके हमल असक़ात करवा देती हो, इसको विष्णु देवता के सुपुर्द किया गया है।
अब सवाल पैदा होता है कि ऐसी गाय को विष्णु के सुपुर्द क्यों किया गया। क्या विष्णु देवता इसको धर्म का उपदेश करेगा कि तू आइन्दा ऐसा फ़अ़ल मत करना या विष्णु देवता इसको कोई सज़ा देगा। या इससे क्या सुलूक करेगा ग़र्ज़ ये कि इस क़िस्म के बीसियों सवाल पैदा होत हैं जिन को कोई तसल्ली बख़्श जवाब स्वामी दयानन्द के भाष्य में नहीं मिल सकता। लेकिन जिस वक़्त स्वामी दयानन्द की इब्तदाई तसानीफ़ पर नज़र डाली जाती है तो हमें इस का हल दो टूक मिल जाता है चुनांचे स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश मतबूआ बनारस 1875 ई0 के दसवें समुल्लास में ऐसी गाय को यज्ञ में कुर्बानी कर देने की तालीम दी है और वह इसकी ताईद में ब्रहमन ग्रन्थों का हवाला भी देते हैं। ये तो स्वामी दयानन्द का ख़्याल है लेकिन जब हम दूसरी स्मृतियों और शास्त्रों को तलाश करते हैं तो वहाँ से भी हमें इस बात के हक़ में शहादत मिलती है। मसलन् मनु स्मृति के पाँचवें अध्याय में साफ़ अल्फ़ाज़ में लिखा है कि देवताओं के नाम से यज्ञ में फ़लां फलां हैवान को ज़िबह करना चाहिये। इन परिन्दों और चरिन्दों की वहाँ पर यजुर्वेद के मज़कूरा बाला अध्याय की तरह एक बहुत लम्बी चौड़ी फ़हरिस्त दी गयी है और लुत्फ़ की बात ये है कि इस फ़हरिस्त में कसरत से वही जानवर बतलाये गये हैं जो कि मज़कूरा बाला अध्याय में बताये गये हैं। उनमें गाय बेल वगै़रह का मारना भी शामिल है और इसको सवाब का बाइस बताया गया है। अला हाज़ल क़यास व्यास संहिता, विशिष्ट संहिता, विष्णु संहिता में भी यज्ञ के लिये परिन्दों और चरिन्दों का मारना लिखा है। ख़ुद ब्रहदार नेक उपनिषद अध्याय 8 ब्रहमन 4 मंतर 18 में लिखा है कि जो पुरूष ये चाहे कि मेरा पुत्र पंडित प्रख्यात, प्रगल्भ, सुन्दर अर्थ वाली का बोलने वाला चारों वेदों का वक्ता सम्पूर्ण आयु का भोगने वाला हो, वह पुरूष जवान बेल, अथवा इससे कुछ ज़्यादा उम्र वाले बेल का माँस चावलों के साथ पकाकर इसमे घी डालकर अपनी औरत के साथ खाये। स्वामी दयानन्द ने भी अपनी तसनीफ़ संस्कार विधि में इसको बतौर सनद के पेश किया है। अलावा अज़ीं यजुर्वेद के इक्कीसवें अध्याय के उन्तीसवें मंतर का भाष्य करते हुए, स्वामी दयानन्द ने यज्ञ के लिए हंसा को ज़रूरी समझा है और काले रंग के मेंढे वग़ैरह जानवरो को यज्ञ की सामग्री के लिये लाज़मी जुज़्ा क़रार दिया है। और इस बात के बताने की तो चन्दाँ ज़रूरत ही नहीं है कि स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश मतबूआ बनारस 1875 ई0 में नरमीदा और गौमीदा यज्ञ में बेल वग़ैरह नर जानवरों को मारने की तालीम अज़रूए ब्रहमन ग्रन्थ वग़ैरह दी है। इन बातो के पेश करने से मेरा मतलब इस बात पर बहस करना नहीं है कि जानवरों का देवताओं के नाम पर मारना पाप है या पुण्य। बल्कि इस बात पर बहस करना है कि यजुर्वेद के चौबीसवें अध्याय में जो मुख़्तलिफ़ देवताओं के नाम के साथ मुख़्तलिफ़ जानवर लगाये गये हैं, उनका हल सिवाये इसके और कुछ नहंी हो सकता कि इन देवताओं के नाम पर इन जानवरों को फ़लां फ़लां क़िस्म के मर्द व औरत ज़िबह करें। स्वामी दयानन्द अगरचे अपनी पहली किताब सत्यार्थ प्रकाश मतबूआ बनारस 1875 ई0 में इस बात की ताईद कर चुका है और साफ़ अल्फ़ाज़ में लिख चुका है कि यज्ञ में बेल गाय और दीगर जानवरों का ज़िबह करना कोई पाप की बात नहीं है। वह अपने इस ख़्याल की ताईद में पुराने शास्त्रों के हवाले जात और अपनी दलाईल भी पेश करता है। और इसने कहीं भी इस बात का ऐलान नहीं किया कि यज्ञ में गाय बेल वग़ैरह ज़िबह करने की जो इबारत सत्यार्थ प्रकाश 1875 ई0 में दर्ज है वह इसकी नहीं है बल्कि वह इसको दुरूस्त तसलीम करते हुए सिर्फ़ इस बात का ऐलान करता है कि इस किताब मे जो मुर्दों का श्राद्ध लिखा है उसकी बजाये जिन्दों का श्राद्ध समझना चाहिये। और बस चुनांचे इस तमाम मामले में मुफ़स्सल बहस कर चुका हूँ जिस शख़्स को देखना मनज़्ाूर हो वह इस सत्यार्थ प्रकाश के जवाब को जो मैंने उर्दू में शाये कर दिया है पढ़कर अपनी तसल्ली कर सकता है। मगर बावजूद ये कि स्वामी दयानन्द के ऐसे ख़्यालात थे लेकिन जब इसको यजुर्वेद के चौबीसवें अध्याय से वास्ता पड़ा तो इसको एक ऐसा वसीअ छेद नज़र आया जिसको देखने के साथ ही वह बक़ौल
तन हमा दाग़ दाग़ शद पनबा कजा कजा नहम
इस मोर्चे को बन्द करने या इसके बन्द करने की कोई तजवीज़ समझाने के बगै़र ही आगे निकल गया अगर वह ऐसा न करता तो इसको सख़्त मुश्किल का सामना करना पड़ता क्यों बोद्ध और जैनी पहले से ही शोर मचा रहे थे कि वेदों में जानवरों की कुर्बानी की तालीम है। इधर बुद्धों और जैनियो के ज़बरदस्त प्रचार की बदौलत आज कल के हिन्दू भी इस क़िस्म की कुर्बानियों की तालीम को वेदों में से निकलते देखकर ख़ुशी हासिल नहीं कर सकते थे। क्यों कि अगर बग़ौर देखा जाये तो मौजूदा हिन्दुओं में जो जानवरों की कुर्बानी के खि़लाफ़ जज़्बा देखा जाता है वह बुद्धों और जैनियों के ही प्रचार का नतीजा है। स्वामी दयानन्द इस मुश्किल को बख़ूबी जान गया था। इसलिये इसका हल उसको इसके सिवाये कुछ नहीं सूझा कि वह इस अध्याय पर नज़र बन्द करके आगे निकल गया। वरना अम्र वाक़िअ़ा तो ये है कि यजुर्वेद का चौबीसवाँ अध्याय, गाय, बेल, भेंस, भेड़, बकरी, हिरन, ग़र्ज़ेकि मुख़्तलिफ़ क़िस्म के जानवरों की कुर्बानी का एक ख़ूनी मुज़बह या कुर्बान गाह है। जिसकी ताईद बहुत से पुराने और ज़माना हाल के मुफ़स्सिरीन भी करते हें। इस कुर्बान गाह या मुज़बह पर पर्दा डालने के लिये स्वामी दयानन्द इस अध्याय को जूँ का तूँ बतौर एक चैसतान के छोड़ जाता है और असलियत को छुपाने की इसने जो नाकामयाब कोशिश की है वह ऐसी मुज़हिका खे़ज़ है कि इसके एक एक फ़िक़रे पर बीसियों ऐतराज़ो की बोछार होती है। मसलन् नामालूम भेड़ और धारन करने के लायक़ एक ही रंग वाली छोटी छोटी बछड़ियाँ विद्वानों की स्त्रियों के लिये जाननी चाहियें। (मंतर 5)
सवाल पैदा होता है कि नामालूम क्या बला है और विद्वानों की स्त्री इसको लेकर क्या करे और बछड़ियों को विद्वानों की स्त्रियों से क्या तअल्लुक़ वह बछड़ियों को क्या करें। इनकी पूजा करे या उनसे जंग करें या उनका दूध दोहें जबकि वह दूध देने के क़ाबिल नहीं हैं या उनके पाँव धोकर पियें या क्या करें। इसी तरह मंतर 18 में माता पिता के लिये ख़ाकी रंग वाले अमीरों वज़ीरों के लिये काले रंग वाले और गनी विद्या को जानने वालों के लिये मौअे ताजे़ पशु मुक़र्रर किये गये हैं। उसमें क्या राज़ है। इसी तरह मंतर 23 में मुर्ग़ाें, उल्लुओं, मोरों, कबूतरों का हाल लिखा है। और मंतर 24 में विद्वानों की स्त्रियों के लिए तो गौओं को मारने वाले जानवर और विद्वानों की बहनों के लिये कोलीक नाम के जानवर मुक़र्रर किये हैं। ये बहुत अजीम मुअम्मा है। इसी तरह मंतर 30 में मुख़्तलिफ़ इन्सानों के लिए मुख़्तलिफ़ क़िस्म के जानवर मसलन् नील गाय, जंगली मेंढा, काला हिरन बत्तख़ वगै़रह मुक़र्रर किये गये हैं। अला हाज़ल क़यास मंतर चालीस में विद्वानों के लिए गेंडा और दुष्टों के लिये काले रंग का कुत्ता गधा और सियाह गोश। राजा के लिये सुअर और चाँदमारी करने वालों के लिये गिरगिट पपीहा मुक़र्रर किये गये हैं। इसी तरह उन्तीसवें अध्याय के मंतर 59 में लिखा है
ऐ इन्सानो! तुम क़ाबिले तारीफ़ फ़ौज वाले, विज्ञान युक्त, सिपेहसालार के लिये लाल वसूल वाला बेल, सूरज के गुण वाले नीचे हसूल में सफ़ेद रंग वाले ताक़त देने वाले सुनहरी नाफ़ वाले विद्वानों के सम्बन्धी जंगली बकरे और पीले रंग के पशु वायु देवता वाले ख़ाकी रंग वाले अग्नि देवता वाला काला बकरा। बानी के गुनों वाली भेड़ और जल के गुणों वाला तेज़ रफ़तार पशु काम में लाओ।
अब सवाल पैदा होता है कि सिपेहसालार के साथ बेल, ताक़त देने वाले जंगली बकरों, काले रंग के बकरों, भेड़ों का क्या तअल्लुक़ है। ये जानवर सिपेहसालार के लिये किस तरह काम में लाये जायें। स्वामी दयानन्द इसका जवाब नहीं देता। मगर इसका जवाब विशिष्ट स्मृति मुतर्जमा पंडित भीमसेन सफ़हा 120 पर दिया गया है।
अगर ब्रहमन, खशतरी या राजा मेहमान आ जाये तो घर वाला इसके लिये बेल और बड़े बकरे का माँस पकावे।
ग़ालिबन् विशिष्ट स्मृति में वेद के इसी अध्याय या मज़कूरा बाला मंतर की तरफ़ ही इशारा है। स्मृति और श्रुति को जब पहलू बा पहलू रखकर देखा जाता है। तो मतलब बिल्कुल साफ़ हो जाता है। इसी तरह आपस्थबा सोत्र के प्रथम प्रश्न की पाँचवीं टपल की अठारहवीं कांडका में गाय के मारने की इजाज़त दी गयी है। महाभारत के दिन पर्व के अध्याय 207 में लिखा है कि रंती देव राजा, रोज़ दो हज़ार गाय ज़िबह किया करता था और ऋषि मुनी इसके हाँ भोजन पाया करते थे और ये राजा मरने के बाद स्वर्ग में गया।
विष्णु पर इन मतबूआ बंग बासी 1956 सफ़हा 313, 314 पर लिखा है कि गौ माँस से पुत्र लोग ग्यारह माह तक तृप्त रहते थे चुनांचे शुप्राण अध्याय 63 में कोशिक के पुत्र गर्ग ऋषि के शागिर्दों को श्राद्ध में गौ माँस खाने का ज़िक्र आता है। इसी तरह विष्णु संहिता अध्याय 80 में मुख़्तलिफ़ देवताअें या पुत्रों के नाम पर मुख़्तलिफ़ जानवरों की कुर्बानी और उनके माँस से उन उन देवताओं या पुत्रों का मुख़्तलिफ़ अर्से तक तृप्त रहना बताया गया है। इन बातों ंप मेरी मुराद इस बात पर बहस करना नहीं है कि पुत्रों या श्राध के बारे में स्वामी दयानन्द की जो पोज़िशन है वह ग़लत है। या सही बल्कि इस बात पर बहस करना है कि जिस सूरत में कि स्वामी दयानन्द ख़ुद अपनी इबतदाई तसानीफ़ में ये मान चुका हो कि यज्ञ में जानवरों की कुर्बानी करनी चाहिये और जिस सूरत में कि दीगर शास्त्र भी इसकी शहादत देते हों। इस सूरत में स्वामी दयानन्द ने इस सीधे रास्ते को छोड़कर यजुर्वेद की चौबीसवें अध्याय की असलियत पर पर्दा डालने की जो कोशिश की है। इसमें ख़ुद स्वामी दयानन्द क़तई बेदस्त व पा रह गया है और ये तमाम का तमाम अध्याय बज़ाते ख़ुद एक चैस्तान बन गया है जिसके सर पैर का कुछ पता नहीं लग सकता।
अब सवाल ये पैदा होता है कि अगर वेद ख़ुदा का कलाम हैं और वह इन्सानों की रहबरी के लिये नाज़िल हुए हैं तो क्या वजह है कि इन्सान शुरू दुनिया से लेकर आज तक उनकी असली मअ़नों को समझने से क़ासिर रहे हैं। यहाँ तक कि ख़ुद स्वामी दयानन्द के लिये भी जो कि बक़ौल प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर वेदों के पीछे पागल था। वेदों के अक्सर मक़ामात सेहराये आज़म साबित हुए हैं और वह उन पर कुछ रोशनी नहीं डाल सका जैसा कि मज़कूरा बाला अध्याय में दिखाया गया है। ऐसे हालात में कोई दयनतदार शख़्स इस बात के लिये तैयार नहीं हो सकता कि वह वेदों को ख़ुदा का कलाम माने जो कि इन्सानों की रहबरी के लिये नाज़िल हुआ। हालांकि सही पोज़िशन ये है कि वेद पुराने ज़माने के पुरोहितों के गीत हैं। उनमें से बअज़ अच्छे और बहुत अच्छे हैं लेकिन बअज़ महज़ बच्चों की बातें और बअज़ सख़्त वहशियाना ख़्यालात का मदफ़न हैं जो कि उन पुरोहितों के सीने मे मोजज़न थे ऐसी सूरत में वेदों को ख़ुदा का कलाम मानना और उन पर अपने दीन व ईमान की बुनियाद क़ायम करना इन्सान की रूह पर सख़्त ज़्ाुल्म करना है क्योंकि इस सूरत में इन्सान की तमाम रूहानी आज़ादी पुरोहितों के हाथ में बिक जाती है और वह इससे आगे परवाज़ नहीं कर सकती। जहाँ तक कि इन पुरोहितों ने परवाज़ किया है। अगर उसको उनमें कोई ग़लत या वहशियाना बात नज़र आती है तो ऐसी ग़्ाुलाम रूह ये कहने की ताक़त नहीं रखती कि वह बात दरहक़ीक़त ग़लत और वहशियाना है। बल्कि वह यह कहकर अपनी तसल्ली कर लेती है कि ये मेरी अक़्ल का क़सूर है कि मैं इस मुअम्मे को समझ नहीं सकता ये किस क़द्र ख़तरनाक रूहानी ग़्ाुलामी है इसके बरअक्स अगर ये तस्लीम कर लिया जाये कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है बल्कि वह पुराने ज़माने के इन्सानों के ख़्यालात का मजमूआ है तो इस सूरत में हमें ये कामिल आज़ादी हासिल रहती है कि हम उनमें से मुफ़ीद ख़्यालात को लेलें और मुज़िर ख़्यालात को परे फेंक दें। इस तरह हमारी ज़ेहनी और रूहानी तरक़्क़ी का रास्ता बराबर खुला रहता है और हम पुरोहितों की ग़्ाुलामी का शिकारी बनने की बजाये अपनी आज़ादी को बराबर क़ायम रख सकते हैं जो लोग ये प्रचार कर रहे हैं कि वेद ख़ुदा का कलाम है वह सिर्फ़ यही नहीं कि रूहानी आज़ादी के गले पर छुरी रख रहे हैं बल्कि वह आने वाली नस्लों के लिये रियाकारी, अलहाद और देहरियत के महल का बुनियादी पत्थर क़ायम कर रहे हैं।
क्योंकि ये लाज़मी अम्र है कि जिस वक़्त भी किसी दयानतदार इन्सान को इस ख़ौफ़नाक तालीम का पता लगेगा जिसकी चन्द मिसालें मैं ऊपर दर्ज कर चुका हूँ वह उसी वक़्त या तो इस ख़ुदा की तरफ़ से मुँह फेर लेगा जो कि इस क़िस्म का इलहाम दे सकता है। या वह वेदों को हाथ से फेंक देगा। इसकी ज़िन्दा मिसाल मैं मौजूद हूँ। जो इस बात का पता लगने के साथ ही कि वेदों में इस क़िस्म की ख़तरनाक तालीम भी मौजूद है। उनको हाथ से फेंक रहा हूँ और उनको ख़ुदा का कलाम तसलीम करने के लिये तैयार नहीं हूँ। हालांकि इससे पेशतर मैं वेदों को दिल व जान से ख़ुदा का कलाम मानता और ऐसा ही प्रचार करता था। लेकिन अब मेरे लिये नामुम्किन है कि मैं ऐसी तालीम को वेदों में देखकर जो कि स्वामी दयानन्द के अपने ही अल्फ़ाज़ में महज़ जिहालत की तालीम है। उनको ख़ुदा का कलाम मानूं तावक़्ते कि मैं रियाकारी से काम न लूँ लेकिन मैं रियाकार बनने के लिये तैयार नहीं हूँ। लिहाज़ा मेरे लिये लाज़मी हो जाता है कि मैं वेदों के बोझे को सर से उतार कर फेंक दूँ। इस बात पर रोशनी डालने के लिये कि इस मसअले ने लोगों को किस क़द्र रियाकार बना रखा है। यहाँ पर आर्य समाज के एक अख़्बार में से चन्द सतरें नक़ल करता हूँ। आर्य समाज का एक लीडर लिखता है
जो सवाल आप के रूबरू पेश किया जाता है वह गोश्त ख़ोरी के सवाल से कई दर्जे बढ़कर है क्या नास्तिक यानी वेदों को ईश्वर कृत न मानने वाले आर्य समाज के लीडर और बड़े बड़े अधीकारी हो सकते हैं ? एक अधीकारी महाशय से कुछ अर्सा हुआ मैं ने दर्याफ़त किया कि आप वेदों को ईश्वरकृत मानते हैं। जवाब दिया कि जैसा दस उसूलों में लिखा है वैसा मानता हूँ उसूलों में ‘‘वेद ईश्वरकृत हैं’’ ऐसा मतलब है या नहीं। अगर है तो सवाल का जवाब हाँ होना चाहिये था अगर सूरत दोयम हो तो सवाल नहीं होता अगर अक्सर असहाब को सीधा हाँ या न करने में ताम्मुल होता है। उमूमन् इसी क़िस्म के जवाब होते हैं जैसा कि मज़कूरा मुझको मिला है। आप से सच कहता हूँ कि मुझको कभी ख़्याल तक भी नहीं गुज़रा कि उसूलों में लफ़ज़ ईश्वरकृत न होने से कुछ और भी इसका मतलब हो सकता है। जहाँ तक स्वामी जी का ज़ाती यक़ीन इसके बारे में है वह किसी से पोशीदा नहीं। स्वामी जी लिखते हैं कि चारों वेदों को धर्मयुक्त, ईश्वर परिणित संहिता मनुभाग को ही निरा भ्रान्त सोता प्रमाण मानता हूँ चूंकि स्वामी जी इन नियमों का अपनी ज़िन्दगी में प्रचार किया इससे इसका मतलब स्वामी जी के निज सिद्धान्तों के बरखि़लाफ़ नहीं हो सकता। पस जो पुरूष इस सवाल का जवाब ये न देवें कि हाँ मैं वेदों को ईश्वरकृत मानता हूँ ज़रूर उसूलों के कुछ और अर्थ करते हैं और वेदों को उन्हें ईश्वरकृत समाज के बड़े मिम्बर और अधीकारी हो सकते हैं तो किस का मक़दूर है कि माँस भक्षण को नाजायज़ ठहराये। वेद आर्य समाज की बुनियाद है। जब वेदों को ही उड़ा दिया तो मूल की अदम मौजूदगी से शाख़ पत्ते कहाँ रह सकते हैं ऐसा मानने वाले एक नहीं बल्कि अग़लब है कि बहुत से होंगे। (सत्ता धर्म प्रचारक 2 अक्तूबर 1912 ई0)
मज़कूराबाला तहरीर आर्य समाज के एक लीडर की तरफ़ से शाये होती है। इससे मेरे इस बयान की ज़बरदस्त अल्फ़ाज़ में ताईद होती है कि इस मसअले ने कि ‘‘वेद ईश्वरकृत’’ हैं सोसायटी में रियाकारों का एक ख़ासा गिरोह पैदा करने में मदद दी है जो दिल से वेदों को ख़ुदा का कलाम नहीं मानते। लेकिन पुरोहित क्लास से वह इस क़द्र डरते हैं कि अपने ख़्यालात को वह आज़ादाना तौर पर ज़ाहिर करने की अख़्लाक़ी जुरअत नहीं रखते इसका नतीजा सिवाये इसके और क्या निकाला जा सकता है कि वेद उनको बजाये दयानतदार बनाने के रियाकार बना रहे हैं। फट पड़े सोना जो छेदे कान। रियाकार बनने की बजाये बेहतर है कि वेदों को ही उठाकर अलग रख दिया जाये इसीलिये मैंने इस ना मरग़्ाूब बोझ को सरसे उतार फेंका है। मगर बिला वजह नहंी बल्कि संगीन वाक़िअ़ात और ज़बरदस्त वजूहात की बिना पर मैं वेदों को ख़ुदा के कलाम के दर्जे से साक़ित करके पुराने ज़माने के पुरोहितों के गीतों की सतह पर रखता हूँ उनमें से बअ़ज़ गीत अच्छे हैं लेकिन बअज़ सख़्त वहशियाना और ख़तरनाक हैं। अब मैं वेदों को न तो कलामे इलाही मानता हूँ न ही मैं इस बात का क़ायल हूँ कि वेदों के प्रचार से दुनिया में आलमगीरी शान्ति की बादशाहत क़ायम हो सकती है बल्कि जैसा कि मैं ऊपर दिखा चुका हूँ वेदों में जिस क़द्र जंग व जदल कुश्त व ख़ून, मार धाड़, दंगा फ़साद, लूट, ग़ारत, क़त्ले आम, अपने धर्म के मुख़ालिफ़ों को उल्टा करके ज़िन्दा आग में जलाने, अपने दुशमनों को शेरों से फड़वाने, समन्दर में ग़र्क़ करने, दरिन्दों से चरवाने और अनवाअ़ व अक़साम की सफ़ाकियों से मरवाने की तालीम है वह निहायत ही ख़तरनाक बल्कि शर्मनाक है। ऐसी तालीम को ख़ुदावन्दे कुद्दूस की ज़ाते पाक की तरफ़ मनसूब करना सख़्त कुफ्ऱ ख़ौफ़नाक देहरियत और शर्मनाक इलहाद है। और ये कहना कि ऐसी तालीम के प्रचार से दुनिया में अमन की बादशाहत क़ायम हो सकती है एक लासानी झूठ है। सच तो ये है कि दुनिया को ऐसे वैदिक धर्म की ज़रूरत नहीं है बल्कि वैदिक धर्म के नीचे से निजात पाने की ज़रूरत है। क्योंकि वैद जिस क़िस्म की ख़ूंरेज़ी की तालीम देते हैं वह तो चारों तरफ़ हो रही है। और वेदों की तालीम के मुताबिक़ तोप, बन्दूक़ तीरेा तफ़ंग, आतिशीं असलहे की भरमार, जंग व जदल, कुश्त व ख़ून, दंगा फ़साद मारधाड़, क़त्ल व ग़ारत, फ़ौज की कसरत, बमसाज़ी, मशीनगन, क्रूपगन, डरेडनाट, डिस्टरायर, क्रूज़र, टारपीडो, बर्री, बहरी, और हवाई जंग, गाँव के जलाने, दुशमनों को क़त्ल करने, चीरने, फाड़ने, ग़र्क़ करने, और बअज़ हालात में ज़िन्दा आग में जलाने अपने दुशमनों की तबाही चाहने और उनकी बरबादी के लिये ख़ुदा से दुआऐं मांगने, उनको ज़ेहर देने, उनकी गर्दने काटने, उनका बीज नाश करने, उनके घरों को लूटने उनके खेतों को आग लगाने की बदौलत जैसा कि वेद मंतरों से ऊपर साबित किया जा चुका है। तमाम दुनिया शौला-ए-नार बन रही है। और चारों तरफ़ वेदों की इस ख़तरनाक तालीम के ख़ौफ़नाक शौले ज़मीन से उठकर आसमान की तरफ़ जा रहे हैं और दुनिया इस अमली वैदिक धर्म के भारी बोझ के नीचे पिस्ती जा रही है। और मर रही है। वैदिक धर्म की इस अमली प्रचार की आग में घी की आहूति डालना मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में बनी नूए इन्सान के साथ ग़द्दारी करना है। स्वामी दयानन्द ने वेदों को उठाया, नतीजा ये निकला कि उन्होंने सिवाये उनके जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते थे बाक़ी तमाम मज़हबी दुनिया को और तमाम मज़ाहिब के मुक़द्दसीन को तलवार से नहीं बल्कि शमशीरे से बेदरीग़ तहे तेग़ कर दिया। जिसने वेदों के सामने सर झुकाया उसी ने सारी मज़हबी दुनिया के साथ हंगामा कारज़ार शुरू कर दिया। वह सोसाइटी जो वेदों को खुदा का कलाम मान रही है। वह सिर्फ यही नहीं कि बाकी तमाम मज़ाहिब को अपना दुश्मन खयाल करके वेदों की तालीम के मुताबिक उनकी बीखकुनी में मसरूफ है बल्कि उसी तालीम का बदौलत उसके मेम्बर आपस में भी एक दूसरे के जिल्लत और तहक़ीर, तज़हीक और तज़लील में रात-दिन कोशां रहते और तहरीर और तक़रीर के ज़रिये एक दूसरे की तबाही और बरबादी के मन्सूबे सोचते रहते हैं, चूंकि वेदों में जाबजा यही तालीम दी गयी है कि वह जो हम से दूश्मनी करते हैं वह फना हो जायें और जिन से हम दुश्मनी करते हैं वह भी फना हो जायें, इस लिए इन दुआओं को इलाही दुआयें मानने वाले एक दूसरे की तबाही और बरबादी, जिल्लत और तहक़ीर में रात दिन कोशां नज़र आते हैं, बस वेदों की अन्दरूनी तालीम और उसके बदीही नताईज पर नज़र करके में यह नतीजा निकालने के लिए मजबूर हुआ हू कि ज़हरीले दरखत का फल कदरतन ज़हरीला होता है। ऐसी तालीम को खुदावन्द कुद्दूस की ज़ात वाल की सिफात की तरफ मन्सूब करना मिस्टर हयूम के अल्फाज़ में महज शरारत फेलाना है।
समाप्त

वेद और स्वामी दयानन्द -book ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल Ex Arya pandit (1-2)

नये ज़माने में ‘‘सत्यार्थ प्रकाशः समीक्षा की समीक्षा’’ के बाद इस नायाब पुस्तक को हिन्दी में देख कर उम्मीद की जाती है हिन्दी प्रेमी बहुत खुश होंगे, साथ ही यह भी उम्मीद है कि सच्चाई तलाश करने वाले को पूरी उम्मीद है सच्चा रास्ता आसानी से मिलेगा,

ग़ाज़ी महमूदी धर्मपाल जो इस्लाम के खि़लाफ़ आर्यसमाज की सहायता से कई किताबों के लेखक थे आपको सभी किताबों के इस्लामी स्कॉलरों ने जवाब भी दिये थे, मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी लेखक ‘हक प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश‘ से 11 साल के बहस मुबाहिसे के बाद आप इस्लाम की सच्चाई को मान कर फिर से मुसलमान हुए और अपने 11 साल के आर्यसमाजी अनुभव से इस्लाम को अपनी कई किताबों से तक़वियत बख़्शी।

Original Book Download Links:Download Links:
Free
http://www.mediafire.com/?60kxxj1uff9vvdk
-
युनिकोड में पढने में असहज महसूस करें तो इधर पढें Online reading उर्दू जानने वाले ओरिजनल पढ सकते हैं
http://www.scribd.com/doc/57826205/Ved-Swami-Dayanand-Mehmud-Dharmpal-Hindi-Arya-Study-Book-Good-Result


नोट- यह पुस्तक आर्य समाज उस समय के के भाष्य को सामने रख कर लिखी गयी हैं,,, आज के भाष्य को इन पंक्तियों से समझें
''आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं
स्वामी दयानंद सरस्वती के शिष्य प. भीमसेन शर्मा ने इस और सब से प्रथम ध्यान दिया और कदम भी उठाया, उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्वर के सिद्धांत के विपरीत है अत- उन्होंने जिस जिस श्लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्लोक को झट अर्ध चन्द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्लोकों को प्रक्षिप्त बता कर निकाल बाहर किया,
इस दिशा में एक दूसरे आर्यसमाजी विद्वान प. आर्य मुनि ने इस यक्ष पशन के समाधान के लिए एक और ढंग अपनाया, उन्होंने जहां 'अहं' पद देख वहां उस का अर्थ ' ईश्वर' कर दिया और जहां मा शब्द मिला, वहां उसका अर्थ वैदिकधर्म कर दिया (देखें प. नरदेव शास्‍त्री वेदतीर्थ कृत 'आर्य समाज का इतिहास, पृ. 235)  ''
आर्य समाज के भाष्‍य के भाष्‍य में अनुवाद ऐसे हुआ जैसे कोई कहे कि रामायण में 'दशरथ' का अर्थ कोई भी 'दस रथों वाला' व्यक्ति
''स्वामी दयानंद के सामने एक समस्या खडी हो गई, वह यह कि यदि वेद सृष्टि के आरंभ में प्रकट किए गए तब उन में ऐतिहासिक व्यकितियों के नाम नहीं होने चाहिए, परन्तु जैसा की उपर दिखाया जा चुका है, वेदों में च्यवन, विमद, तुग, भुज्यु आदि सैकडों व्यक्तियों के नाम विद्यमान हैं, पुराने भाष्यकारों ने इस शंका का समाधान यों किया कि च्यवन, विमद आदि व्यक्ति प्रतयक कल्प में होते हैं,
 इस प्रकार वेदों में इतिहास है तो सही, परंतु वह नित्य इतिहास है, जो प्रत्येक सृष्टि में दोहराया जाता है, इस प्रकार वेदों को ईश्वरकृत भी मान लिया गया और नित्य इतिहास से युक्त भी, पर स्वामी दयानंद को यह युक्ति नहीं जंची, इस लिए उन्होंने तुग्र, भुज्यु आदि व्यक्तिवाचक नामों के अर्थ धातुओं के अर्थ के आधार पर और के और कर दिए, उदाहरणार्थ, उन्होंने 'तुग्र' का अर्थ 'शत्रुहिसंक सेनापति' कर दिया और उसके पुत्र 'भुज्यू' का अर्थ 'राज्यपालक व सुखभोक्ता', यह बात ऐसी ही है जैसे कोई कहे कि रामायण में 'दशरथ' का अर्थ कोई भी 'दस रथों वाला' व्यक्ति तथा राम का अर्थ कोई भी रमने वाला मनुष्य है
 स्वामी दयानंद ने भूतकालिक क्रियाओं का अर्थ वर्तमान काल विधिलिंग आदि में कर दिया है इस प्रकार उनका लक्ष्य यह था कि वैदिक इतिहास न रह, उपदेश बन जाए,
निसंदेह उददेश्य प्रशंसनीय था, पर सच्चाई यह है जहां सत्य अर्थ को छोड कर अभीष्ट अर्थ किए जात हैं, वहां पाठकों के पल्ले कुछ नहीं पडता,, यही कारण है कि स्वामी दयानंद तथा अन्य आर्यसमाजियों के विद्वानों के वेदभाष्य न एक दूसरके के अनुरूप हैं न परंपरागत वेदभाष्यों के अनुरूप हैं,,,''
साभार- राकेशनाथ, 'कितने अप्रासंगिक हैं धर्मग्रंथ, पृष्ठ 73 
 ............................................................................................
विषय सूची ‘‘वेद और स्वामी दयानन्द’’

ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल का परिचय
1. प्रस्तावना ‘वेद और स्वामी दयानन्द
2. स्वामी दयानन्द के क़दमों में
3. स्वामी दयानन्द और उनके मैयार (मानक,Quality)
4. स्वामी दयानन्द और वेद
5. वेद और आलमगीर शांति (विश्व-शान्ति)
6. वेदों पर ईमान की बुनियाद की कमज़ोरी
7. चौबीसवाँ अध्याय
(यजुर्वेद के 24 वें अध्याय की तफ़सीर करने में दयानन्द जी बेबस)
--

ग़ाज़ी महमूद धर्मपाल
(लेखक का परिचय आनलाइन उपलब्ध उर्दू पुस्तक ‘तुर्क-ए-इस्लाम‘ और ‘तिबर-ए-इस्लाम‘ लेखकः मौलाना सनाउल्लाह के हवालों से,,,
मौलाना ने जवाबी तौर पर हक प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश फोरन लिखी थी जो 14 सम्‍मुल्‍लास के जवाबों में सबसे मकबूल रही,,,,जिसका जवाब 45 साल बाद एक आर्टिकल को किसी इस्‍लाम मुखालिफ किताब में घुसा कर,,, फिर उसको भी नए चेलों द्वारा एडिट करके कहा जाता है यह जवाब है,,,,,,इतनी समझ नहीं कि 159 समीक्षाओं की हक प्रकाश में 160 जवाब दिए गए हैं,,बताओ इस जवाबी किताब में 160 में किस नम्‍बर पर बात की गयी ?,,सनाउल्‍ला साहब की पुस्‍तक मुकद्दस रसूल ने तो आर्य समाज की किताबी जंग को ही खतम कर दिया था,)

एक मुसलमान अब्दुल गफूर नामी इक्कीस साला ने गुजरांवाला की आर्यसमाज में दाखिल होकर धर्मपाल बनकर अपना रिसाला मासूमा ‘तर्के इस्लाम‘ शाए किया। जिससे मुसलमलानों में इस सिरे से उस सिरे तक बिजली की तरह आग लग गयी। हर फिरके ने उसके जवाब दिये। सबसे पहले खाकसार राकिम की तरफ से जवाब निकला जिसका नाम था ‘तुर्के इस्लाम‘ इस की दीबाचे में मैंने वजदानी तौर पर यह लिखा था कि ‘मिस्टर धर्मपाल के इस्लाम में वापस आने की वजदानी तोर से हमें उम्मीद है‘
यह फिकरा वजदानी था। मगर इसकी सहत मिसल इलहामी जाहिर हुयी। चुनांचे धर्मपाले इस्लाम में आकर गाजी महमूद बने उनकी वापसी हम उन्हीं के अल्फाज में बतलाते हैं आप लिखते हैंः
‘‘14 जून 1903 को मेरे बारे में जिस किस्म की नुमाईश और जिस किस्म के जलसे या रसम रसूम अदा करने का सवांग रचा गया था। मैं देखता हूं कि इस्लाम में दाखिल होने के लिए मुझे हरगिज़ हरगिज़ इस किसम की नुमाईश, जलसे या रसम रसूम अदा करने की ज़रूरत नहीं है। बल्कि अमर वाका यह है कि 14 जून 1903 ई. से पूरे ग्यारह साल के बाद यानि 14 जून 1914 ई. को बगेर किसी शख्स की मौजूदगी के तन तन्हा अपने खुदावन्द कुददूस के हूजूर में सदक दिल से दोज़ानू हाकर मैंने जो इकबाल किया था। उसी इकबाल का मैं यहां पर एलान कर देना जरूरी समझता हूं। वह इकबाल यह है कि अशहदू अन्ला इलाहा इलल्लाह व अशहदू अन्ना मुहमदन अब्दुहू व रसूलूहू...........‘‘(अल मुस्लिम, जुलाई 1914)

इस इन्कलाब का सबब किया हुआ और ‘तुर्के इस्लाम‘ ने इस सबब में किया हिस्सा लिया? इसका जिक्र भी उन्हीं के अल्फाज़ में दरज जैल हैः
‘‘जब मोलवी नूरूददीन साहब (क़ादयानी) ने रिसाला ‘नुरूददीन‘ के ज़रिये और मोलवी सनाउल्लाह साहब ने ‘तुर्के इस्लाम‘ वगेरा के ज़रिये इस्लाम और मुल्लाइज़्म के दरमियान खत्ते ममीज़ खींच दिया तो मेरी तसानीफ की क़ीमत एक दियासलाई के बराबर रह गयी। मेरे एतराज़ात का जवाब देने में ‘नुरूददीन‘ के मुसन्निफ का निशाना इल्मी मालूमात की बदोलत बेखता होता था। मगर ‘तुर्के इस्लाम‘ का वार ज़्यादा सितम ढाता था। जबकि वह मेरे किले को जो मैं सख्त जददोजहद के साथ तफसीरों की बिना पर तामीर करता था। सिर्फ इतना सा फिकरा लिखकर मस्मार कर डालता था कि ‘तफसीर का जवाब तफसीर लिखने वालों से लो। कुरआन मजीद इसका जिम्मेदार नहीं है‘ इस एक फिकरे ने ‘तर्के इस्लाम‘ और ‘तहजीबुल इस्लाम‘ को छलनी कर डाला। मैंने नतीजा निकाल लिया कि नुरूददीन के मुसन्निफ के साथ तो बहस चल सकती है मगर ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ के साथ जो मुल्लाइज्म का सिरे से ही मुनकिर है। बहस का चलना मुश्किल है मगर लुत्फ यह हुआ कि ‘नुरूददीन‘के मूसन्निफ ने मेरे मुकाबले पर दोबारा कलम न उठाया हालांकि मैं आरजूमन्द था कि उसके साथ बहस का सिलसिला जारी रहे लेकिन ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ ने ‘तहज़ीबुल इस्लाम‘ के जवाब पर फिर कलम उठाया मगर मैं उस के साथ बहस करने के लिए तैयार नहीं था। नतीजा यह हुआ कि ‘नुरूददीन‘ के मुसन्निफ ने मेरे मुकाबले पर दोबारा कलम न उठाया। और मैं ने ‘तुर्के इस्लाम‘ के मुसन्निफ के मुकाबले पर कलम उठाने से इन्कार कर दिया। इस तरह हमारी पहली जंग का खातमा हो गया। मगर कुछ अरसे के बाद ‘मुल्लाइज्म‘ को दोबारा रगडने का खयाल मेरे दिल में पैदा हुआ। इस दफा मैंने तारीख से मदद ली और ‘नखले इस्लाम‘ के नाम से जली सडी हुई किताब शाए की। आर्य समाज के अखबारात ने इस किताब का निहायत ज़ोरदार अलफाज़ में रिव्यू किया। मुस्लिम अखबारात ने इसके बरखिलाफ शोर मचाया। मैं चाहता था कि पुराने टाइप के मुल्ला लोग मेरे मुकाबले पर आयें ताकि मुझे इस बात के जानने का मौक़ा मिले कि वह इन बातों का किया जवाब रखते हैं लेकिन बद-किस्मती से इस दफा भी वही ‘तुर्के शीराज़ी‘ मैदान में आ कूदा और यह कहकर कि कुरआन मजीद या इस्लाम तारीख या तफासीर का जवाबदे नहीं है। ‘नखल इस्लाम‘ पर ‘तबरे इस्लाम‘ मार कर चलता हुआ। इस तरह पुराने टाइप के जिन मुलानों को रगडने के लिए मैंने यह दूसरी कोशिश की थी। वह फिर बच गये। आखिर कार जब मैं ने देखा कि ‘मुल्लाइज़्म‘ के मानने वाले तो मैदान में आते नहीं और जो मैदान में आते हैं वह ‘मुल्लाइज्म‘ के मानने वाले नहीं होते तो मैंने इस तमाम बहस का कतई फेसला कर डाला। और ‘तर्के इस्लाम‘ से लेकर अपनी आखरी तसनीफ तक जिस कदर किताबें थीं इन सब को मैंने 14 जून 1911 ई. को जलाकर खाक सियाह कर दिया‘‘(अल मुस्लिम, पृष्ठ 393, दिसम्बर 14 ई.)

किताब ‘तुर्के इस्लाम‘ के अलावा खाकसार की शखसियत ने इसमें कहां तक हिस्सा लिया। यह एक लतीफ दास्तान है। गुज़िस्ता इक्तबास से मालूम होता है कि मिस्टर धर्मपाल 14 जून 1914 ई. को इस्लाम में आकर गाज़ी महमूद के नाम से मोसूम हुए मगर मेरी मुलाकात उनसे बहुत पहले हुयी थी उस मुलाकात की ज़रूरत और शरह खुद उन्हीं के अल्फाज़ में मज़ा देगी जो दरज जैल हैं। आप लिखते हैंः
‘मेरी गुज़िस्ता एक साल की बेऐज़ा जिन्दगी ने मेरे मुसलमान भाईयों के दिलों पर भी मेरे लिए इस कदर मुहब्बत पैदा करदी है कि जब उनको मेरी बीमारी का हाल मालूम हुआ तो वह जोक़ दर जोक़ मेरे पास आने लगे इन में से मोलवी सनाउल्लाह साहब का नाम खासकर काबिले जिक्र है। मोलवी साहब के साथ तहरीरी दस्त पन्जा तो सालहा साल तक होता रहा मगर रू दर रू होने का गालबन यह पहला ही मौका था। जिसको एक मुबारक मौका ही समझना चाहिए। खाह वह बीमारी की शकल में ही नमूदार हुआ हो। मोलवी साबि फितरतन खुश मज़ाक असहाब में से हैं इस लिए समझ लेना चाहिए कि जहां एक तरफ ‘तर्के इस्लाम‘ और ‘तहज़ीबुल इस्लाम‘ बल्कि ‘नखले इस्लाम‘ का मुसन्निफ बिस्तर मर्ज पर पडा हो। और दूसरी तरफ ‘तुर्के इस्लाम‘ और ‘तगलीबुल इस्लाम‘ बल्कि ‘तबरे इस्लाम‘ का मुसन्निफ उसके सिरहाने बैठा उसकी तीमारदारी कर रहा हो। वहां अगर मलकुस्समावात वलअरज़ दिली मुसर्रत से यह शअर पढ रहे हों किः
शुकरे ऐज़द कि मयाने मन व उ सुलह फताद
हूरयां रक्स कुनां सागरे शुक्राने जदन्द
तो कोई अजब की बात नहीं है। इससे पेशतर मेरा यह खयाल था कि मोलवी सनाउल्लाह जो अहमदिया फिरके के साथ मुसलमानों जैसे फजूल छेडछाड करता रहता है वह ज़रूर कोई ‘कठमुल्लाह‘ होगा। यही वजह थी कि बावजूद उनकी कोशिश करने के मैं कभी उनसे मिलना नहीं चाहता था लेकिन पहली ही मुलाकात में मुझे मालूम हुआ कि मोलवी सनाउल्लाह एक खुश मिजाज़, खुश मज़ाक़, खूबसूरत और खूबसीर जन्टलमेन है। और कुदरत ने उसको एक दिलरूबा अदा दी है सच तो यह है कि इस इब्न याकूब को देख कर मुझे अपने दिल को थामने में बडी दिक्कत पेश आयी। वह हर तीसरे रोज अमृतसर से मेरी खबर लेने के लिए लाहूर पहुंचते थे।‘‘
इस बीमारी से भी बहुत पहले का एक वाकआ बहुत देरीना सहबत याद दिलाने वाला है। वह भी मिस्टर धर्मपाल ही के अल्फाज में दरज है।
हुस्न अखलाक से एक बफा सियालकोट आर्य-समाज के जलसे में बज़रूरत बहस मेरा जाना हुआ तो बाद मुबाहिसा दूसरे रोज़ स्टेशन को जाते हुए दोनों जमाअतें(मुस्लिम और आर्य) मिल गयीं। उस मौके पर मैं सबके सामने मिस्टर धर्मपाल से बगलगीर हुआ और कुछ अल्फाज़ भी कहे जो उन्ही की इबारत में आते हैं। आह! उस बग़लगीरी का लुतफ उस्ता मोमिन खां मरहूम को हासिल होता तो वह कभी मन्दरजा जेल शेअर न लिखतेः
रख लेवेंगे पत्थर मगर उन संगदिलों को
तौबा है कि सीने से लगाया न करेंगे
इस वाकआ का जिक्र मिस्टर धर्मपाल यूं करते हैंः
‘‘नहीं मालूम इस्लाम में कौन-सा जादू है। और मुस्लिम कौम में कौनसी स्प्रिट काम कर रही है कि जिसको देखकर मैं बाज़ औक़ात हैरान व शशदर रह गया हूं और मुझे बेसाख्ता कहना पडा है कि इस्लाम में कोई न कोई ऐसा जादू ज़रूर है जो मेरी समझ से बालातर है। और कि यह एक ऐसी बला की कौम है कि जिसक़दर में इस क़ौम से दूर भागता हूं उसी कदर मेरे नज़दीक आने की कोशिश करती रही है यहां तक कि जि दिनों में इस्‍लाम और मुसलमानों के बरखिलाफ मेरा कलम निहायत ही खोफ़नाक आग बरसा रहा था, ऐन उसी गोलाबारी के दिनों में मेरे उस हरीफ़ ने जिसने मेरी आतिशबार कलम के मुकाबले पर सबसे ज्‍यादा आतिशबाज़ी की थी एक रोज मोका ताडकर मुझे सैकडों दयानंदियों के मजमे में लपक कर सीने से लगा लिया और हसरत भरे लहजे में कहा कि
''आखिर यह जुदाई कब तक'', 1903 से लेकर आजतक मुझे मुस्लिम कौम की स्प्रिट का दूसरी कौमों की स्प्रिट से मुकाबला करने का दो दफा मौका मिला है, और मैं दोनों दफा मुस्लिम स्प्रिट की बरतरी का क़ायल होने के लिए मजबूर हुआ हूं, मुझे पहला मौका तो उस वक्‍त मिला था जबकि मैं ने अपना सबसे पहला लेक्‍चर ''तर्के इस्‍लाम'' शाए किया था, ''तर्के इस्‍लाम'' शाए करने को मैं शाए तो कर चुका मगर चंद ही रो़ में मुझे मालूम होगया कि मैंने भिडों के छत्‍ते मे हाथ डाला है, चुनाचे छ ही माह में दो दरजन के करीब मुसलमानों ने इसके जवाबात शाए किए और इसके बाद कई सालों तक इसके जवाबात भी शाए होते रहे, कम से कम तीस रिसाले या किताबें तो मेरी नज़र से गुज़र चुकी हैं, जो कि मुसलमानों ने ''तर्के इस्‍लाम' के जवाब में लिखी थीं, और जिनके मुसन्निफ़ खुद ही अपनी तस्‍नीफ़ की एक-एक कापी मेरे पास भेजते रहे, अहले हदीस, शिया, सुन्‍नी, नेचरी, अहमदी , चकडालवी गर्ज़ कि हर एक फिर्के की तर से ''तर्के इस्‍लाम'' के जवाबात शाए हुए, चूंकि इन जवाबत में स्‍वामी दयानंद की तालीम पर भी इलज़ामी हमे होते थे इस लिए उन किताबों ने डबल गोलाबारी का काम दिया, एक तो ''तर्के इस्‍लाम'' पर और दूसरा ''आर्य समाज'' पर गोला बरसता था, मैं तो गुरूगुल कांगडी के जंगल में एक झोंपडी में बैठा हुआ चुप-चाप इस तमाशे को देख रहा था लेकिन मुसलमानों की इस गोलाबारी से आर्यसमाज में एक सिरे से दूसरे सिरे तक हलचल मच गयी, और आर्य समाज की किश्‍ती मंझदार में जा पडी, आर्यसमाज के कारकुनों ने इस बात को महसूस करना शुरू किया कि ''तर्के इस्‍लाम'' के शाए करवाने में गलती हुई है, आखिर कार जब उन्‍होंने देखा कि अहले इस्‍लाम की तरफ से आतिशबारी दिन बदिन तेज़ होती जाती है तो उन्‍होंने खयाल करके कि जिस शखस की बदौलत आर्य समाज पर यह आफत नाजि़ल हुई है उसी को आग में झोंक देना चाहिए, मुझे यह जानकर कि लोहे को लोहा काटता है अहले इस्‍लाम के मुक़ाबले पर खडा होने के लिए मजबूर किया, चुनांचे यह वो मौका था जबकि मैं ने मुसलमानों की आग के मुकाबले पर ''तहजीबुल इस्‍लाम'' वगैरा के जरिए आग बरसानी शुरू की, और छ साल तक मुतवातर आ बरसाता गया, गो में इस काम को करता था मगर मुझे बार-बार खयाल आता था कि में से-सिकंदर ही के साथ मकर कर रहा हूं, चुनांचे मुझे कामयाबी न हुई नतीजा यह हुआ कि मैं ने अपनी रफतार को गलत जानकर और अपनी ताकत को जाए होते देख कर अपनी तमाम किताबों को जला दिया और मैदान मुसलमानों के हाथ रहा'' (अल मुस्लिम 49-50 बाबत जुलाई 1914 ई.)

इस सारी दास्‍तान का मुखतर मतलब यह है कि मैं(मौलाना) ने मिस्‍टर धर्मपाल को अलेहदगी के दिनों में भी उसी मुहब्‍बत से देखा जिस मुहब्‍बत से कोई अपने दूर  उफतादा अजीज को देखा करता है, हमेशा में इसी कोशिश में रहा कि हमारा अजीज गुमराही से निकलकर हिदायत पर आजावे, चुनांचे बहम्‍दुलिल्‍लाह ऐसा ही हुआ
----साभार ''तुर्के इस्‍लाम''
-----------------

RELIGIOUS CONTROVERSIES IN THE PUNJAB:
THE ‘A POSTASY ’OF GHAZI MEHMUD DHARAMPAL

........From 1914 onwards Ghazi Mehmud Dharampal took out a number of journals and was actively involved against the Arya Samajis during the Shuddhi campaigns of 1920’s. But even though he became a Muslim, his understanding of the religion remained unconventional a she tilted toward the Ahl al-Qur’ an – .......

ALI USMAN QASMI  UNIVERSITY OF HEIDELBERG GERMANY
Page 5 to Page 18
http://www.scribd.com/doc/44946222/The-Historian-2009-1

---


वेद और स्वामी दयानन्द
पहली फ़सल

प्रस्तावना

दोस्तो!
मैं आज जिस मज़मून पर आप के सामने बोलना चाहता हूँ वह ये है कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है। मैं साफ़ अल्फ़ाज़ में बता देना चाहता हूँ कि एक अर्से तक मेरा ये दिली ऐतक़ाद रहा है कि वेद ख़ुदा का कलाम है। लेकिन अब मेरा ये ऐतक़ाद नहीं है पेशतर इस के कि मैं आप के सामने अपने इस ऐतक़ाद की तबदीली का ज़िक्र करूँ मैं इस बात का इक़रार कर लेना भी ज़रूरी समझता हूँ कि मैं इन मुतअस्सब इन्सानों में से नहीं हूँ जो किसी बात पर महज़ ज़िद से अड़े रहते हों बल्कि मैं हक़ व हक़ानियत का तालिब हूँ और मैं सदक़ दिल से इस उसूल का पाबन्द हूँ कि इन्सान को सच्चाई के क़बूल करने और झूठ के तर्क करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। अगर उन असहाब में से जो कि वेदों को अभी तक ख़ुदा का कलाम मान रहे हैं कोई शख़्स दलाईल व वाक़िआत की बिना पर इस बात को साबित कर दे और मुझे क़ायल कर दे कि वेदों को ख़ुदा का कलाम न मानना मेरी ग़लती है तो मैं फ़ौरन् अपनी ग़लती की इसलाह कर लूँगा मेरी ये पोज़िशन ऐसी माकूल है जो कि दुनिया में हर एक हक़ पसन्द इख़्तियार करता चला आया है। यूरोप के मौजूदा ज़माने के फ़लास्फ़रों के सरताज मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर का मकूला है कि मुहक्किक़ शख़्स को फ़तह पाने की निसबत सदाक़त को मदेनज़र रखना चाहिए और सदाक़त की जाँच के लिए लाज़मी है कि इन्सान इन तअस्सुबात या जज़्बात से आज़ाद हो जाये जो ज़मीन के ख़ास हिस्से, नस्ल या पैदाईश की बिना पर इन्सानों को क़ैद किये हुए है और उनको हमेशा यह बात मद्दे नज़र रखनी चाहिए कि दुनिया में कोई मज़हबी अक़ीदा या कोई मज़हबी किताब महज़ इसलिए सच्चे नहीं कहे जा सकते कि वह बहुत पुराने हैं न ही किसी मज़हब या किताब को इसके होने नए की वजह से झूठा कहा जा सकता है। इसके बरअक्स बअज़ औक़ात ये देखने में आता है कि ये हमारी ज़िन्दगी के रास्ते में जहाँ पुरानी किताबें बतौर मिट्टी के चिराग़ों के रहनुमाई का काम करती है। इस के मुकाबले में बअज़ ज़माने की किताबें बतौर बिजली की रोशनी के हमारी ज़िन्दगी के रास्ते को रोशन करतीं और हमको राहत बख़्शती हैं। मगर मिट्टी के चिराग़ को महज़ इसलिये हाथ में पकड़े रखना कि ये हमारे बाप दादा हमारी नस्ल या हमारे मुल्क का क़दीमी चिराग़ है और इसके मुक़ाबले में बिजली के लैम्प से फ़ायदा उठाने से इन्कार कर देना मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुब है जिससे आज़ाद होने के लिये मिस्टर हरबर्ट स्पैन्सर ने हर एक मुहक़्क़क़ को नसीहत की है, मैं मुल्की तअस्सुब का क़ायल नहीं हूँ मैं नस्ली या पैदाईशी तअस्सुब का भी गुलाम नहीं हूँ। अगरचे उन लोगो की तरफ़ से जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं मेरे वेदों के कलामे इलाही होने से इनकार करने पर मुझ पर पैदाइशी तअस्सुब का इलज़ाम लगाया गया और लगाया जा रहा है लेकिन वह इस बात को एक मिनट के लिए भी सोचने के वास्ते तैयार नहीं होते कि अगर मैं इस क़िस्म के तअस्सुबात का शिकार होता तो मैं दीगर मज़ाहिब के बरखि़लाफ़ एक लफ़्ज़ भी न लिख सकता। लेकिन मेरे इस क़िस्म के दोस्त जबकि मैं दीगर मज़ाहिब के बरखि़लाफ़ धुवाँदार तहरीरें निकाल रहा था। मेरी तारीफ़ में ज़मीन व आसमान के कलाबे मिलाते और मुझे हक़ व हक़ानियत की ज़िन्दा मिसाल बताते थे अगर मैं उस वक्त हक़ व हक़ानियत का तालिब था तो अब मैं झूठ और बातिल परस्ती का तालिब नहीं कहा जा सकता। मुहक्क़क़ इन्सान नशो नुमा पाने वाले बच्चे की मानिन्द होते हैं जिस तरह बच्चे के वह कपड़े जो कि वह पाँच साल की उम्र में पहनता था पन्द्रह साल की उम्र में इसके लिए छोटे हो जाते हैं इसी तरह मुहक़्क़क़ इन्सानों के पहले ख़्यालात ताज़ा वाक़िआत, तजुर्बात और मुशाहेदात की बिना पर ज़्यादा से ज़्यादा वुसअ़त पज़ीर हो जाते हैं अगर आप का कोई रिश्तेदार या अज़ीज़ आप के पास बचपन का कोई फटा पुराना कुर्ता या पाजामा जो दो तीन बालिश्त से ज़्यादा लम्बा नहीं होगा, लाकर आप से कहे कि तुम कैसे नादान हो जो इस पहले कुर्ते और पाजामे को छोड़कर आज इतने लम्बे लम्बे कुर्ते और पाजामे पहन रहे हो। तुम इन नये कुर्तों और पाजामों को उतार कर वही पुराना कुर्ता और पाजामा पहनो जो कि तुम को तुम्हारे वालिदेन ने दो तीन साल की उम्र में पहनाया था आप इस रिश्तेदार या अज़ीज़ की इस बात पर हंस देंगे। तअज्जुब नहीं कि आप इसको बेवकूफ़ भी कहें। क्योंकि बचपन का दो बालिश्त लम्बा पाजामा अब तुम्हारे नंग को ढांपने के लिये काफ़ी नहीं हो सकता। जबकि आपको गज़ भर लम्बे पाजामे या कई गज़ लम्बे तेहबंद या धोती की ज़रूरत है। आप अपने अज़ीज़ों को ग़ालिबन् यही जवाब देंगे कि अगर आप पसन्द करते हैं कि मैं पुराने कुर्ते को ज़रूर पहनूं तो बराये ख़ुदा इसको इतना कुशादा कर दो या मुझे इजाज़त दो कि मैं इसको इतना कुशादा कर लूँ कि ये मेरे बदन पर फ़िट आ जाये। लेकिन अगर वह अज़ीज़ और आशना उन दोनों बातों में से एक को भी मानने के लिए तैयार नहीं होते तो आपका फ़र्ज़ होना चाहिए कि आप इसको दूर फेंक दें और इसको पहनने से क़तई इन्कार कर दें। आप इसको फेंक देने की बिना पर मुलज़िम या बेवकूफ़ नहीं गरदाने जा सकते। बल्कि मुलज़िम या बेवकूफ़ वह शख़्स है जो आप से इसरार करता है कि आप इसी पुराने कुर्ते को पहनें। जब दो बालिश्त कपड़े की बाबत इन्सानों का यह हाल है तो ये किस क़दर ज़ुल्म और अंधेरे की बात है कि किसी मुहक़्क़क़ इन्सान के ख़्यालात की वुसअ़त को देखकर उस पर ये फ़तवा पास किया जाये कि चूंकि इसने पहले ख़्यालात को तर्क कर दिया है इसलिये वह गुमराह या नादाँ है और इसकी गुमराही या नादानी को दलाईल से साबित न किया जाये। वह लोग जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं वह मेरे ख़्यालात की वुसअ़त या आज़ादी पर बईना इसी क़िस्म का फ़तवा पास कर रहे हैं।

वह कहते हैं कि आज से नौ साल पेशतर तुम ने वेदों को ख़ुदा का कलाम तसलीम किया था। तुम कैसे गुमराह हो जो आज तुम इस पुराने कुर्ते को जो ख़ुदावंदे कुद्दूस ने इन्सान के बचपन के अव्वलीन हिस्से में तैयार किया था पहनने से इनकार करते हो। मगर मैं कहता हूँ कि मैं अब बुलन्द क़द हो गया हूँ। अब ये इन्सानी बचपन का कुर्ता मेरे नंग को ढांप नहीं सकता बल्कि जिस तरह किसी ज़माने में ये कुर्ता मेरे दिल और दिमाग़ के लिये राहत बख़्श था क्योंकि ये इस वक़्त मेरे ऐन फ़िट आता था। इसी तरह अब ये फ़िट न होने के बाइस मेरे दिल और दिमाग़ के लिए तकलीफ़ देह हो रहा है। इसलिये कि ये बहुत तंग है और मैं ज़्यादा नशोनुमा पा गया हूँ। जब मैं ये जवाब देता हूँ तो मुझे ताना दिया जाता है कि हमारे तुम्हारे ऋषि मुनी इस कुर्ते को पहनते और इसको ख़ुदा का कलाम मानते चले आये हैं लेकिन तुम क्या उनसे बढ़कर हो जो ऐसी बातें बनाते हो। मुझे ताना माकूल मालूम नहीं होता जबकि तारीख़ शहादत देती है कि पुराने ऋषि मुनी जंगलों में रहने के बाइस या तो अपने नंग को ढांपने की चन्दाँ ज़रूरत नहीं समझा करते थे या दो बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्र से ही आगा पीछा ढांककर गुज़ारा कर लेते थे। लेकिन मुझे कोई मअ़कूलियत नहीं है कि चूँकि पुराने ऋषि मुनी ऐसा करते थे इसलिये मैं भी आज बालिश्त भर लंगोटी या भोजपत्र को आगे पीछे टांगकर घूमता फिरूँ। अगर ऋषि मुनी वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते थे तो मुल्की नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात की बिना पर ऐसा मानने की लिये मजबूर थे। जबकि वह हक़ व हक्क़ानियत की तलाशी के लिये इस आला मैयार से आरी थे जो कि मिस्टर हरबर्ट स्पैन्सर के अल्फ़ाज़ में दिखाया जा चुका है। आज के बरअक्स जो मुहकिक़क़ मुल्की, नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद थे। उन्होंने वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने से इन्कार कर दिया। बौद्ध और चारदाक के मुहकिक़क़ वुस्ता ज़माने की ज़िन्दा शहादत हैं। और ब्रह्म समाज वेदों की कलामे इलाही न होने के बारे में ज़माना-ए-हाल का एक ज़िन्दा और ज़बरदस्त प्रोस्टेंट हमारी आँखों के सामने मौजूद है। वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की तरफ़ से बुद्धों, जैनियों और चारदाक के मुहकिक़क़ों पर ये इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वह दाम मार्गी थे हालांकि ये इल्ज़ाम कोई बुनियाद नहीं रखता। लेकिन अगर एक मिनट के लिये इस इल्ज़ाम की सदाक़त को तसलीम भी कर लिया जाये तो ब्रह्मों समाज के मुहक़्क़क़ीन को इसी इल्ज़ाम से रद्द करने की कोशिश करना यक़ीनन् अपने आप को क़ानून की ज़बरदस्त ज़ंजीरों से जकड़ना है जबकि अम्रे वाक़िअ़ ये हो कि ब्रहमो समाज के इस क़िस्म के तमाम मुहक़्क़क़ उन उयूब से पाक थे जो कि दाम मार्गियों की तरफ़ मनसूब किये गये हैं और वह आला दर्जे की मज़हबी, अख़्लाक़ी और मजलिसी ज़िन्दगी का नमूना थे। मेरे इस बयान से ये नतीजा नहीं निकालना चाहिए कि मैं बौद्ध, जैनी चारदाक या ब्रहमो समाजी हूँ। मेरा इन सोसायटियों से कोई भी तअल्लुक़ नहीं है। बल्कि मेरा मतलब इस बात पर रोशनी डालने से है कि जिन लोगों ने मुल्की, नस्ली या पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद होकर वेदों का मुताला किया है उन्होंने उनको ख़ुदा का कलाम तस्लीम करने से इन्कार कर दिया है। मगर वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की तरफ़ से फिर आवाज़ आती है कि जिन लोगों को तुम मुहकिक़क़ कहते हो वह दर-हक़ीक़त मुहकिक़क़ नहीं थे और कि उन्होने वेदों से लाइल्मी की वजह से मुँह फेर लिया। अगर तुम वेदों के बारे में सही सही रोशनी हासिल करना चाहते हो तो तुम को इस शख़्स की बात पर ऐतबार करना चाहिये जो कि वेदों का मुहकिक़क़ और स्कॉलर हो। अगरचे मैं इस बात को तस्लीम करने के लिए तैयार नहीं हूँ कि बौद्ध, चारदाक, जैन और ब्रहमो मुहकिक़ों को मुहकिक़ीन के ज़मरे से ख़ारिज कर दिया जाये। लेकिन हक़ व हक्क़ानियत का पता लगाने के लिये मुझे एक मिनट के लिये ये मान लेना चाहिये कि वह वेदों के मुहकिक़क़ नहीं थे। अब सवाल ये पैदा होता है कि तुम वेदों का मुहकिक़क़ या स्कॉलर किसको कहते हो, मेरे कान में आवाज़ आती है कि वेदों का सबसे बड़ा स्कॉलर और मुहकिक़क़ स्वामी दयानन्द था। अब मुझे इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि स्वामी दयानन्द जैसा वेदों का स्कॉलर और मुहकिक़क़ वेदों के बारे में हमें क्या ख़बर लाकर देता है।

जब मैं स्वामी दयानन्द की तहक़ीक़ात पर गहरी नज़र डालता हूँ तो मैं इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि दरअसल स्वामी दयानन्द वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने में ‘‘दयानतदार’’ नहीं था। मेरे ये अल्फ़ाज़ चौंका देने वाले मालूम होंगे। लेकिन मैं स्वामी दयानन्द की ही तहरीर से इस बात को साबित करूँगा। पेशतर इसके कि मैं इस मज़मून को शुरू करूँ ज़रूरी मालूम होता है कि मैं यहाँ पर स्वामी दयानन्द के पुराने दोस्त और हिन्दुस्तान के बही ख़्वाह और इंडियन नेशनल काँग्रेस के बानी मबानी मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी की इस तहरीर का थोड़ा सा इक़तबास यहाँ दे दूँ कि जो कि मार्च 1893 ई0 के थ्योसोफ़ेस्ट में शाये हुई थी। मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी लिखते हैं -
‘‘हम सब को स्वामी दयानन्द की इज़्ज़त और तारीफ़ करनी चाहिए क्योंकि वह एक बड़ा पुरूष और बुलन्द ख़्याल था। लेकिन हक़ व हक़्क़ानियत के इन तमाम आशिकों को जिन्होंने कि अपने आप को पुरोहितों की गुलामी से आज़ाद कर लिया है ये सुनकर सख़्त दुख होगा कि स्वामी दयानन्द ने एक ऐसी सोसायटी क़ायम की है जो कि वेदों के नौशतों को मुनज़्ज़ा मिनलख़ता मानती है। इन तमाम ग़लत अक़ाईद मे से जिन्होंने कि बदक़िस्मत इन्सानी दुनिया में लानत की बारिश की है कोई अक़ीदा ऐसे ख़तरनाक नताईज का पैदा करने वाला साबित नहीं हुआ जिस क़दर कि मज़हबी किताबों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का निहायत ही क़ाबिले नफ़रत और पुर फ़रेब अक़ीदा साबित हुआ है। यही वजह है कि सच्चाई के तमाम आशिक़ों को इस अक़ीदे की बड़ी शद्दोमद से मुख़ालफ़त करनी चाहिए। ये अक़ीदा एक ऐसी शरारत की ज़मीन है कि जिसमें से पुराहितों की वह ख़ौफ़नाक और ज़हरीली जमाअत पैदा होती रही है जिसने कि इन्सानी तारीख़ के हर एक वर्क़ को तबाही तनज़्ज़ुल मुसीबत आग और ख़ून से रंग छोड़ा है इसलिये इस ख़तरनाक अक़ीदे को रखता हुआ ख़्वाह स्वामी दयानन्द उससे दस गुना आलिम और नेक दिल भी होता जितना कि दरहक़ीक़त है ख़्वाह उसके इरादे उससे सौ गुनाह नेक, आला और बेग़र्ज़ा न होते जितने कि वह हैं फिर भी ये हर एक ऐसे शख़्स को ख़्वाह वह कितना ही अदना और कम इल्म हो मगर जिसने तारीख़ की शहादत से इस निहायत ही ख़ौफ़नाक अक़ीदे के सख़्त ख़तरनाक नताईज से आगाही हासिल कर ली हो। फ़र्ज़ होना चाहिए कि वह कम से कम इस पहलू में स्वामी दयानन्द की बहादुराना मुख़ालफ़त करे जबकि वह इस अक़ीदे को बतौर एक सनद के हम पर ठूँसने की कोशिश करता है और इसको साफ़ अल्फ़ाज़ में बताया जाये कि अगरचे वह दीगर मामलात में एक देवता कहा जा सकता है मगर इस अक़ीदे में उसकी पोज़िशन एक ऐसे ग़द्दार की पोज़िशन है जो कि इन्सानी बेहबूदी और सदाक़त के हक़ में ख़तरनाक ग़द्दारी कर रहा हो।’’
ये अल्फ़ाज़ सख़्त है लेकिन वह कौन से सख़्त अल्फ़ाज़ हो सकते हैं जिनके ज़रिये कि इस अक़ीदे को जो कि बनी नूए इन्सानी की गुज़िश्ता तवारीख़ में तमाम लानतों से बड़ी लानत साबित हुआ हो। गर्दन ज़ोनी क़रार देने के लिये इस्तेमाल किये जा सकते हैं? ये बात कि स्वामी दयानन्द ने वेदों की मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता साबित करने की कोशिश दयानतदारी से की है। इसकी पोज़िशन को बदल नहीं सकती इससे इसकी अख़्लाक़ी ज़िम्मेदारी का बोझ हल्का हो सकता है। लेकिन इसकी मुख़ालफ़त करने और इसके फ़अ़ल की असलियत को ज़ाहिर करने का हमारा जो फ़र्ज़ है हम इससे सुबकदोश नहीं हो सकते। अगर बदक़िस्मती से कोई स्वामी ये समझ ले कि दुनिया की तमाम बीमारियों की दवा ये है कि जितने दरियाओं और नदी नालों तक इसका हाथ पहुँच सके, उसमें वह मुहलिक ज़हर घोल दे और अपनी हिमाक़त से ये समझ बैठे कि इस पानी के इस्तेमाल से तमाम इन्सान बीमारी से शिफ़ा पा जायेंगे। हालाँकि तारीख़ शहादत देती हो कि वह ज़हर बनी नूऐ इन्सान के लिये निहायत ही मुहलिक साबित हो चुका है। इस सूरत में इस स्वामी के ऐसे ख़तरनाक फ़अ़ल पर जितने भी सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ में झाड़ा जाये और लोगों को इसका शिकार बनने से आगाह किया जाये उतना ही कम होगा। ऐसी सूरत में अगर एक शख़्स जो ख़्वाह कितना ही हक़ीर और बे बज़ाअ़त हो ये समझ कर कि इतने बड़े आलिम और नेक दिल शख़्स ने ये कैसी ख़तरनाक हरकत की है अपने हमजिन्सों को इस ज़ेहर के प्याले से दूर रखने के लिये आगाह करने का काम करे तो इस पर कोई इल्ज़ाम नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि दुनिया में आलमे जमादात, आलमे नबातात और आलमे हैवानात का कि तमाम ज़ेहरों से बढ़कर बनी नूऐ इन्सान को हलाक किया है। दुनिया में जिस क़दर ख़ौफ़नाक जंग हुए जिस क़दर अज़ाब बरपा किये गये जिस क़दर मज़हब के नाम पर क़त्ल व ख़ून हुए, उनमें से निस्फ़ से ज़्यादा इस ग़लत अक़ीदे की बिना पर बरपा हुए और इस तमाम कुश्तो ख़ून ने ज़मीन के बहिश्ती चेहरे को जहन्नम में तबदील कर दिया इसलिये अगरचे मैं इस अंगूरिस्तान का एक मामूली मज़दूर हूँ और अगरचे मैं स्वामी दयानन्द की जूती का तसमा खोलने के भी लायक़ ख़्याल न किया जाऊँगा। मगर मैं इस ज़ेहरीले और खौफ़नाक अक़ीदे के बरखि़लाफ़ जो कि स्वामी दयानन्द ने बतौरे बुनियादी उसूल के अपनी सोसायटी में दाखि़ल किया है अपनी कमज़ोर आवाज़ उठाने से नहीं रह सकता। आओ! ज़रा वाज़ेह तौर से हम इस बात पर विचार करें कि वेदों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का क्या मतलब है। वेदों को मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने का ये मतलब है कि इस पुरोहित को भी जो कि इनकी चाबी अपने हाथ में रखता है और जिसके क़ौल की आम आदमी पैरवी करते हैं। मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तसलीम किया जाये। चुनांचे गुज़िश्ता तारीख़ इसकी शाहिद है और मौजूदा ज़माने में भी इसकी मिसालें मिलती हैं कि कोई मुकद्दस किताब ख़्वाह कितने ही साफ़ अल्फ़ाज़ में क्यों न लिखी हुई हो। इसमें कुछ न कुछ ऐसे फ़िक़रात ज़रूर मिलेंगे जिनके कि दो तरह पर मअ़नी किये जा सकते हों। इस तरह पुरोहित को मौक़ा मिल जाता है कि वह इस बात का फ़ैसला करे कि दोनों में से किन मअ़नों को ठीक तस्लीम किया जाये। लेकिन अम्रे वाक़िआ ये है कि कुतुबे मुकद्दसा का ज़्यादा हिस्सा ऐसा होता है जो वाज़ेह नहीं होता। उनमें से बहुत-सी किताबों की ज़बान पेशतर इसके कि उनको मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तस्लीम किया जाये, मर चुकती हैं यानी व न बोली जाती है, न समझी जाती है और बार बार के उलट फेर से उनमें अक्सर पाठ, भेद और मिलावट आ जाती है। और उनमें मुतज़ाद बयानात पाये जाते हैं। इस तरह ये शक पैदा हो जाता है कि कौनसा हिस्सा असली और कौन सा माबाद की मिलावट है। अगर ये भी तसलीम कर लिया जाये कि किसी बहुत दूर के ज़माना साबक़ा में किसी किताब को कोई ख़ास पुरोहित या पुराहितों की जमाअ़त या कोई सोसायटी या चर्च मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानती थी तो ये नतीजा नहीं निकल सकता कि माबाद के लोग भी इसको वैसा ही मानें। इसलिये जो आदमी इन तमाम हालात वाक़िआत पर ग़ौर करते हैं वह इस बात को तसलीम करने के बगै़र नहीं रह सकते कि किसी मुकद्दस किताब को मुनण्ज़ा मिनल ख़ता मानने का ये मतलब है कि पुरोहित क्लास को लोगो की रूह पर जुल्म व जब्र से इक़तदार हासिल रहे और जो लोग तारीख़ से वाक़िफ़ हैं वह बख़ूबी जानते हैं कि अगरचे पुरोहित क्लास में बड़े बड़े आलिम मुत्तक़ी, परहेज़गार, साधू संत भी होते रहे हैं लेकिन बनी नूऐ इन्सान पर तबाही इस गिरोह ने बरपा की है। इसका निस्फ़ भी बड़ी से बड़ी वबा और दीगर हलाकतों से नहीं आयी अगर ये भी तसलीम कर लिया जाये कि कोई किताब शुरू में मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानी जाती थी तो मौजूदा ज़माने में इसके मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने का वअ़ज़ करना महज़ शरारत है। अव्वल तो इसलिये कि तजुर्बे ने ऐसे ग़लत अक़ीदे के प्रचार के ख़तरनाक नताईज को दुनिया पर ज़ाहिर कर दिया है। दूसरे कोई भी दयानतदार आलिम शख़्स इस बात को तसलीम नहीं कर सकता कि दो हज़ार साल पहले किसी किताब का असली मज़मून क्या था या इस मज़मून का असली मफ़हूम क्या था। इसलिये अगर स्वामी दयानन्द ये वअ़ज़ कर रहा है कि वेदों का मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता है तो इसका मक़सद ख़्वाह कैसा ही आला हो लेकिन फिर भी यही कहा जायेगा कि वह एक शरारत फैला रहा है और वह अज़सरे नौ बनी नूऐ इन्सान के हाथ पाँव में वह ज़ंग ख़ुर्दा पर नई हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ डाल रहा है जिनके ज़रिये से पुरोहित क्लास ने बनी नूऐ इन्सान को एक मुद्दत से जकड़ रखा था और जो बेड़ियाँ कि अब ढीली होती चली जा रही है।

मैंने जहाँ तक वेद के मंतरों और उनके तराजिम को जो कि यूरोपियन आलिमों और हिन्दुस्तानी पंडितों ने किये हैं, पढ़ा है। मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि उनमें अक्सर मक़ामात पर खींच तान से काम लिया गया है। लेकिन अगर मैं इस बात को तसलीम कर लूँ कि स्वामी दयानन्द वेदों का जो तर्जुमा कर रहा है वह मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता है तो इसका ये मतलब होगा कि वह ख़ुदा के साथ जो उसके नज़दीक वेदों के इलहाम का मिम्बअ़ है, बराबरी का दावा करता है या वह इस मिम्बअ़ से ताज़ा इलहाम पाने का जिसके ज़रिये कि वह मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता तर्जुमा कर रहा है। मुद्दई है मैं बिल्कुल निडर होकर इसको चैलेंज देता हूँ कि वह या तो वेदों के मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने के बड़े अक़ीदे को ठीक साबित करे या वह इस बात का सबूत दे कि वह ख़ुद भी मुलहिम है।
मैं इस बात को वाज़ेह कर देना चाहता हूँ कि मुझे स्वामी दयानन्द की इलमियत पर कोई ऐतराज़  नहीं है। मुम्किन है वह इस ज़माने में वेदों का सबसे बड़ा आलिम हो या ना हो लेकिन अगर वह ख़ुद मुलहिम नहीं है तो इसको वेदों का भाष्य महज़ उसकी अपनी ज़ाती राय हो सकती है जो कि मुम्किन है दुरूस्त हो और मुम्किन है ग़लत हो। लाज़मी तो यही है कि इसमे दीगर इन्सान मुसन्निफ़ों की तरह बहुत सी ग़लतियाँ हों और किसी इन्सान की राय पर यूँ ही मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता होने की मुहर लगा देना, मेरे नज़दीक महज़ कुफ्ऱ है। लेकिन अगर स्वामी दयानन्द ताज़ा इलहाम का मुद्दई है तो उसके पास इस दावे का क्या सबूत है। उसने कौनसा अज़ीमुश्शान काम करके दिखाया है। उसने इस बात की क्या शहादत पेश की है कि वह जो कुछ बोल रहा है वह खुदा की ख़ालिस आवाज़ है और कि उसमें किसी दूसरी आसमानी या ज़मीनी आवाज़ की मिलावट नहीं है। इस जैसे बहुत से आलिम और नेक इन्सान भी मौजूद हैं जो कि इस के भाषीय के बहुत से हिस्से को महज़ ग़लत क़रार देते हैं। इसके पास क्या वजह है कि हम इन आलिमों के ख़्यालात पर इसको तरजीह दें।
(थ्योसोफ़स्ट मार्च 1893 ई0)
मिस्टर ह्यूम आंजहाँनी ने अपने मज़मून में ख़ुद इस बात का इक़बाल किया है कि उन्होंने स्वामी दयानन्द के लिये सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं मुझे ज़रूरत नहीं है कि मैं उनकी तरफ़ से अल्फ़ाज़ की सख़्ती के लिये मअ़ज़र्रत करूँ जबकि वह ख़ुद इस बात को तसलीम कर रहे हैं कि उन्होंने सख़्त कलामी की है। लेकिन मेरे नज़दीक महज़ सख़्त कलामी कोई दलील नहीं है। बल्कि दावे की कमज़ोरी की अलामत है तावक़्ते कि दावे के सबूत में अल्फ़ाज़ से बढ़कर सख़्त वाक़िआत और संगीन दलाईल पेश न किये जायें। मुझे इस बात को अफ़सोस के साथ तसलीम करना पड़ता है कि मिस्टर ह्यूम ने स्वामी दयानन्द की पोज़िशन को कमज़ोर साबित करने के लिये सख़्त वाक़िअ़ात और संगीन दलाईल से इस क़द्र काम नहीं लिया जिस क़द्र कि उन्होंने सख़्त अल्फ़ाज़ से काम लिया है वह इस बात को तो सख़्ती से महसूस करते हैं कि किसी किताब को इलहामी मानना पुरोहितों के हाथ में रूहानी आज़ादी को फ़रोख़्त कर देना है जो कि इलहाम की आड़ में मज़हबी मज़ालिम करते हैं लेकिन मिस्टर ह्यूम की ये दलील चन्दाँ ज़बरदस्त नहीं है। क्योंकि अगर पुरोहित इलहामी किताब की आड़ में बशर्ते कि वह दर हक़ीक़त जोर व जुल्म का मजमुआ हो मज़हबी मज़ालिम कर सकते हैं तो इसी तरह वह इलहामी किताब के ज़रिये बशर्तेकि वह ख़ैर व बरकत का मजमूआ हो मज़हबी दुनिया में अमन व अमान की भी बारिश कर सकते हैं पस किसी इलहामी किताब के बरखि़लाफ़ जिहाद शुरू करने से पेशतर इस बात का जानना ज़रूरी है कि वह इलहामी किताब जोर व  जुल्म  का मजमूआ है या नहीं। अगर ऐसा हो तो उसके बरखि़लाफ़ सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ में जंग करना चाहिये। लेकिन अगर इस में इस क़िस्म के एहकाम नहीं हैं बल्कि वह ख़ैरो बरकत की तालीम देती है। तो हमें महज़ इस लिये इसके बरखि़लाफ़ जिहाद  नहीं  करना चाहिये कि इसको इलहामी तसलीम किया गया है। मेरे नज़दीक इलहाम ऐसी ख़तरनाक चीज़ नहीं है जैसा कि मिस्टर ह्यूम ने इसको फ़र्ज़ किया है। पस मैं मिस्टर ह्यूम की स्प्रिट में किसी मुक़द्दस किताब की महज़ इस बिना पर मुख़ालफ़त करने के लिये तैयार नहीं हूँ कि वह किताब इलहामी तसलीम की गयी है या मैं किसी शख़्स को महज़ इसलिये क़ाबिले मलामत या गद्दार क़रार नहीं दूँगा कि वह किसी किताब के इलहामी होने की तालीम देता है। बल्कि अपना फ़तवा देने से पेशतर मैं इस बात को देखने की कोशिश करूँगा कि इस किताब की तालीम क्या है और कि इस शख़्स पर पुरोहित का इस किताब की तालीम के बारे में क्या बयान है पस मैं महज़ इस बिना पर कि ज़माना गुज़िश्ता में चूँकि पुरोहित क्लास ने इलहामी कुतुब की आड़ में लोगों पर जुल्म किये गये हैं। इसलिये हर एक पुरोहित क़ाबिले मलामत है। मैं किसी मज़हब के पुरोहित के बरखि़लाफ़ फ़तवे देने को गुनाह समझता हूँ तावक़्ते कि पहले इस पुरोहित के अपने बयान को न सुन लिया जाये। आम अदालतों में भी यही दस्तूर देखने में आता है कि मुलज़िम पर फ़र्द जुर्म लगाने से पेशतर इसके बयान को सुन लिया जाता है। या कम से कम सज़ा देने से पहले इसको डिफे़न्स का मौक़ा दिया जाता है पस लाज़मी है कि पहले हम इस बात की पड़ताल करें कि जिन वेदों को स्वामी दयानन्द ने इलहामी माना है उनके बारे में स्वामी दयानन्द का अपना बयान किया है अगर स्वामी दयानन्द के अपने वेद भाष्य के ज़रिये वेदों में से कोई ऐसी बात साबित होती हो जो कि पुरोहितों के हाथ में जाकर दुनिया में कुश्त व ख़ून का बाइस होने का एहतमाल रखती हो तो बक़ौल मिस्टर ह्यूम स्वामी दयानन्द के वेद के हक़ में जिस क़दर सख़्त से सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये जायें वह कम हैं। लेकिन अगर स्वामी दयानन्द के वेद भाष्य से वेद बिल्कुल ख़ैर व बरकत का मजमूआ साबित होते हों तो हर एक शख़्स को स्वामी दयानन्द के नाम पर नारा-ए-आफ़रीं बुलन्द करना चाहिये। मेरे ख़्याल में ये एक ऐसी मुनसिफ़ाना पोज़िशन है जो कि हर एक मुहकिक या सदाक़त पसन्द को मद्दे नज़र रखनी चाहिये ताकि वह सदाक़त की तलाश में राहे रास्त से न भटकने पाये मुझे उम्मीद है कि वह असहाब जो वेदों को इलहामी मानते हैं और वह असहाब जो वेदों को इलहामी नहीं मानते। वह जो वेदों को इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं और वह जो वेदों को इज़्ज़त की निगाह से नहीं देखते मेरे मज़कूरा बाला पोज़िशन को बिल्कुल मुनसिफ़ाना क़रार देंगे।

दूसरी फ़सल
स्वामी दयानन्द के क़दमों में

मैं कह चुका हूँ कि किसी मज़हब या किसी शख़्स पर नुकताचीनी करने से पेशतर इस बात का जानना निहायत ज़रूरी है कि उस मज़हब या उस शख़्स के कौन से मसलमात हैं जिनको वह अपने नज़दीक आला से आला मसलमात क़रार देता है। वह कौन सी किताब को अपने नज़दीक बेहतरीन किताब समझता है किसी मज़हब या किसी शख़्स को फ़तह पाने की ग़र्ज़ से गिराने की कोशिश करना हक़ व बातिल की तमीज़ में मददगार नहीं हो सकता। किसी मज़हब या मज़हबी किताब पर नुकताचीनी करते वक़्त उन ज़मीन दोज़ रास्तों का इस्तेमाल नहीं करना चाहिये जो कि उस मज़हब या मज़हबी किताब के मदाह के नज़दीक मतरूक ख़्याल किये जाते हैं। निहायत ज़रूरी अम्र तो ये है कि पहले फ़रीक़ सानी के बयान को मुकम्मल ग़ौर और सब्र से सुना जाये कि वह क्या कहता है। अगर इस का बयान दरहक़ीक़त माकूल है तो उसको इसलिये नामाकूल साबित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये कि उसको गिराना मक़सूद है। इस उसूल को मद्देनज़र रखते हुए इस बात की तहक़ीक़ात करनी चाहिये कि आया स्वामी दयानन्द वेदों को इलहामी या मुनज़्ज़ा मिनल ख़ता मानने की वजह से मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में वाक़ई ग़द्दार था या नहीं और आया वेद दरहक़ीक़त ख़ुदा का कलाम हो सकते है या नहीं? लाज़मी है कि सबसे पहले स्वामी दयानन्द के बयान को निहायत ग़ौर से सुन लिया जाये।
मिस्टर ह्यूम ने स्वामी दयानन्द को जिस सोसायटी का बानी क़रार दिया है वह सोसायटी इस बात को तस्लीम करती है कि सत्यार्थ प्रकाश स्वामी दयानन्द की किताब है अगर कोई ये कहे कि ये किताब स्वामी दयानन्द की नहीं है तो वह सोसायटी इस बात को हरगिज़ तसलीम नहीं करेगी। इसलिये अगर स्वामी जी के मसलमात या ख़्यालात का सही सही पता लगाना हो तो उसको इस किताब को पढ़ना चाहिये जो कि स्वामी दयानन्द की मुसतनद तसनीफ़ ख़्याल की जाती है। सत्यार्थ प्रकाश के बारहवें समुल्लास में स्वामी दयानन्द ने चारदाक के सत का खंडन करते हुए उनकी किताब में से एक जगह चन्द श्लोक दर्ज किये हैं जिनका तर्जुमा सत्यार्थ प्रकाश में मुफ़स्सला ज़ैल है।
‘‘वेद के बनाने वाले भाँड, धूर्त और निशाचर यानी राक्षस ये तीन हैं। जिरफरी, तिरफरी वग़ैरह पंडितों के मकर की बातें हैं। देखो धूर्तों की काररवाई कि घोड़े के लिंग को औरत पकड़े, यजमान की औरत का इसके साथ हम सोहबत कराना और लड़की से ठट्ठा करना वगै़रह लिखा है। वह धूर्तों के सिवाये और किसी का काम नहीं हो सकता और जहाँ गोश्त खाना लिखा है वह वेद का हिस्सा राक्षस का बनाया हुआ है।’’ (सत्यार्थ प्रकाश पेज न. 278 समूलास 12)
वेदों के बारे मे मज़कूरा बाला राय चारवाक मज़हब वालों की है। अगर इस राय को सही तसलीम कर लिया जाये तो वेद क़ाबिले तर्क हो जाते हैं। लेकिन स्वामी दयानन्द इस राय को ग़लत क़रार देता है। इसलिये चारवाक वालों की राय स्वामी दयानन्द आर्य समाज के लिये कोई हुज्जत नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द ने इसका ये जवाब दिया है।
‘‘अब कहिये अगर चारवाक वग़ैरह ने वेद वग़ैरह सच्चे शास्त्र देखे सुने या पढ़े होते तो कभी इस तरह वेदों की मज़म्मत न करते कि वेद भाँड, धूर्त और निशाचर जैसे आदमियों के बनाये हुए हैं। वह ऐसी बात हरगिज़ न निकालते। अलबत्ता महीधर वगै़रह, टीकाकार (मुफ़स्सिरीन) भाँड, धूर्त और निशाचर थे ये उनकी मक्कारी है वेदों का क़सूर नहीं है लेकिन चारवाक, अभानक बोध और जैनियों पर अफ़सोस है कि उन्होंने चार वेदों की असली संहिताओं को न सुना, न देखा और न किसी आलिम से पढ़ा। इसी वजह से उनकी अक़्ल मारी गयी और वह बे सरो पा वेदों की मज़म्मत करने लगे। बदकिरदार वाम मार्गियों के बेसबूत मनगढ़त और वाहियात शरहों को देख कर वेदों के मुख़ालिफ़ बन गये और बे इल्मी के अथाह समन्दर में जा गिरे। जाये गौ़र है कि औरत से घोड़े का लिंग पकड़वाकर इससे सोहबत करवाना और जजमान की कन्या से हंसी ठट्ठा वगै़रह करना वाम मार्गियों के सिवाये और किसी आदमी का काम नहीं वाहियात मनशा वेदों के खि़लाफ़ और ग़लत शरह उन महापापी वाम मार्गियों के सिवाये और कौन करता। बड़ा अफ़सोस तो इन चारवाक वगै़रह पर आता है कि वह बिला सोचे समझे वेदों की मज़म्मत करने पर मुस्तैद हो गये ज़रा तो अपनी अक़्ल से काम लेते मगर बेचारे करते क्या उनमें इतना इल्म ही नहीं था कि हक़ व बातिल पर ग़ौर करके हक़ की ताईद और बातिल की तरदीद कर सकते। गोश्तख़ोरी भी उनही वाम मार्गी शारहों की कार्यवाही है इसलिये उन्ही को राक्षस कहना बजा है। लेकिन वेदों में किसी जगह गोश्त का खाना नहीं लिखा इसलिये बिला शक व शुबहा ऐसी ऐसी झूठी बातों का पाप इन शारहों को और नीज़ उनको जिन्होंने वेदों को जानने सुनने के बग़ैर ही मनमानी मज़म्मत की है लगेगा। सच तो ये है कि जिन्होंने वेदों की मुख़ालफ़त की और करते हैं या करेंगे वह जिहालत के अंधेरे में पड़े हुए सुख के अवज़ जितना हैबतनाक दुख पायें उतना ही थोड़ा है इसलिये कुल नूऐ इन्सान को वेदों के मुताबिक़ चलना निहायत वाजिब है। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 12 पेज 279)
इस बात का वाक़ई अफ़सोस करना चाहिये कि मज़कूरा बाला तहरीर में बअज़ ऐसे अल्फ़ाज़ मौजूद हैं जो कि एक संजीदा और शाईस्ता बहस में नहीं होने चाहियें जिस तरह मिस्टर ह्यूम ने अपने मज़मून में स्वामी दयानन्द के लिये सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं। इस तरह बल्कि इससे ज़्यादा स्वामी दयानन्द ने अपने मुख़ालफ़ीन के लिये मज़कूरा बाला तहरीर में सख़्त अल्फ़ाज़ का इस्तेमाल किया है। अल्फ़ाज़ की सख़्ती या भद्देपन को नज़र अन्दाज़ करते हुए इस बात का देखना निहायत ज़रूरी है कि स्वामी दयानन्द की पोज़िशन क्या है। स्वामी दयानन्द चारवाक वालों, बुद्धों और जैनियों के बरखि़लाफ़ ये संगीन फ़तवा देता है कि उनकी अक़्ल मारी गयी है क्योंकि उनमें कोई वेदों का आलिम या वेदों का मअ़नों से पढ़ने और सुनने वाला मौजूद नहीं है। स्वामी दयानन्द का ये फ़तवा लाज़मी नहीं है कि रास्ती पर मुबनी हो। लेकिन स्वामी दयानन्द और वेदों की पोज़िशन को समझने के लिये स्वामी दयानन्द का बयान सब्र से सुन लेना ज़रूरी है। स्वामी दयानन्द कहता है कि जिन तफ़ासीर की बिना पर चारवाक वाले वेदों की मज़म्मत करते हैं वह वाम मार्गियों की तफ़ासीर हैं और कि वाम मार्गी वेदों से क़तई अंधेरे में थे। अगरचे स्वामी दयानन्द के मुख़ालिफ़ स्वामी दयानन्द के बारे में भी यही फ़तवे देते हैं कि दरअसल स्वामी दयानन्द वेदों को नहीं समझता था। लेकिन इस बहस में पड़ना चन्दाँ ज़रूरी नहीं है जबकि इस बात का पता लगाना मद्दे नज़र हो कि वह शख़्स जो
प्रोफ़ेसर मैक्स मूलर के अल्फ़ाज़ में
‘‘वेदों के पीछे दीवाना हो रहा हो’’ वह वेदों को किस शक्ल मे पेश करता है इसका फ़ैसला इस वक़्त तक नहीं हो सकता जब तक इस बात को तस्लीम या कम अज़ कम फ़र्ज़ न कर लिया जाये कि वाक़ई स्वामी दयानन्द का वाम मार्गियों की तफ़सीरों के बारे में जो ख़्याल है वह दुरूस्त है इसलिये अगर हमें स्वामी दयानन्द की पोज़िशन को समझना हो तो हमें कमाल इज़्ज़त से इसकी बात को सुनना पड़ेगा और अगर हम ये कहेंगे कि जिन मुफ़स्सिरीन को स्वामी दयानन्द वाम मार्गी बनाता है वह दरअसल दुरूस्त तफ़सीर कर गये हैं और ये कि स्वामी दयानन्द की तफ़सीर ग़लत है तो ये स्वामी दयानन्द और उन मुफ़स्सिरीन का बाहमी दंगल करवाना है। इसलिये हमें वेदों के बारे में कोई ठीक ठीक राय क़ायम करने का मौक़ा नहीं मिलेगा। न ही उन मुफ़स्सिरीन की राय जिनकी कि स्वामी दयानन्द के नज़दीक ‘‘अक़्ल मारी गयी’’ थी स्वामी दयानन्द के लिये कोई सनद हो सकती है और न ही उन मुफ़स्सिरीन की राय का इस सोसायटी पर कोई असर पड़ सकता है जो कि वेदों को स्वामी दयानन्द की तफ़सीर के मुताबिक़ ख़ुदा का कलाम मानती है पस लाज़मी बात है कि स्वामी दयानन्द और वेदों की पोज़िशन को समझने के लिये हम अगर दिल से नहीं तो कम अज़ कम हक़ीक़त को जानने की ख़ातिर स्वामी दयानन्द के क़दमों में बैठकर इन बातों का इक़रार करें कि -
(1) चारवाक वालों ने न वेदों को पढ़ा न सुना न देखा। वेदों का लासानी आलिम स्वामी दयानन्द था।
(2) सुधीर वग़ैरह मुफ़स्सिरीन भाँड व धूर्त, निशाचर और वाम मार्गी थे। उनकी तफ़ासीर हरगिज़ क़ाबिले ऐतबार नहीं हैं बल्कि उनके मुक़ाबले में स्वामी दयानन्द की तफ़सीर वेदों पर सनद है क्योंकि स्वामी दयानन्द आलिम फ़ाज़िल, योगी, ऋषि और मुर्ताज़ था।
(3) चारवाक, बोध, अभानक और जैनियों ने न वेदों को पढ़ा न सुना, न देखा इसलिये उन की अक़्ल मारी गयी और वह बेसरो पा वेदों की मज़म्मत करने लग गये और वाम मार्गियों की तफ़सीरों को देखकर वेदों के मुख़ालिफ़ बन गये और जिहालत के अथाह समन्दर में जा गिरे मगर स्वामी दयानन्द ने वेदों को पढ़ा सुना और देखा बल्कि उनका भाषीय भी किया और वह दिल व जान से वेदों का आशिक़ बल्कि वेदों के पीछे दीवाना था और कि वह हर एक क़िस्म की जिहालत से पाक था।
(4) जिन लोगों ने ऐसी शरहें(भाष्‍य)  लिखी हैं और जो वेदों को जानने और सुनने के बगै़र ही वेदों की मज़म्मत करते हैं वह पापी हैं मगर स्वामी दयानन्द ने जो तफ़सीर लिखी है इसमें इस क़िस्म की कोई मज़म्मत नहीं है इसलिये इस तफ़सीर को पढ़ने वाले पाप के नहीं बल्कि सवाब के मुस्तहिक़ हैं।
(5) अलग़रज़ वेदों के बारे में सही सही राय क़ायम करने के लिये स्वामी दयानन्द की तफ़सीर सनद है। बाक़ी तमाम तफ़ासीर जिनका कि ख़ुद स्वामी दयानन्द ने रद कर दिया है मरदूर हैं और वह हमारे लिये सनद नहीं हैं।
स्वामी दयानन्द के क़दमों में बैठकर अब ये प्रार्थना है कि वेदों की जिन तफ़ासीर को आप ने ग़लत क़रार दिया है वे वाक़ई ग़लत हैं। अब आप कृपा करके हमें अपनी तफ़सीर दीजिये ताकि हम जो वेदों के बारें में ‘‘वाम मार्गियों की तफ़सीरों को पढ़ पढ़कर हैरान व परेशान हो रहे थे आप की तफ़सीरों से वेदों पर हमारा ऐतक़ाद जम जाये और हम उनको ख़ुदा का कलाम मानने लग जायें। ये एक ऐसी माकूल पोज़िशन और प्रार्थना है कि जिसको स्वामी दयानन्द या कोई दूसरा माकूल इन्सान नापसन्द नहीं कर सकता। अब जबकि हम पहली तमाम तफ़ासीर को स्वामी दयानन्द के इरशाद के मुताबिक़ हाथ से फेंक चुके हैं। देखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द इसके अवज़ में हमारे हाथ में क्या देता है।’’

तीसरी फ़सल
स्वामी दयानन्द और उनका मैयार (पैमाना,Standard, Qaulity)

स्वामी दयानन्द जी सत्यार्थ प्रकाश के सातवें समुल्लास में  ईश्वर प्रार्थना का मज़मून दर्ज करते हुए लिखते हैं-
इस क़िस्म की प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और परमेश्वर इसको क़बूल करता है जैसे कि ये है कि ऐ परमेश्वर आप मेरे दुशमनों को फ़ना करो, मुझको सबसे बड़ा बनाओ, मेरी ही नेक नामी हो और सब मेरे मातेहत हो जायें वग़ैरह वग़ैरह। क्योंकि अगर दोनों दुश्मन एक दूसरे के फ़ना के वास्ते प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों को फ़ना कर देवे। अगर कोई कहे कि जिसकी मुहब्बत ज़्यादा होगी इसकी प्रार्थना सफल हो जायेगी तो हम कह सकते हैं कि जिसकी मुहब्बत कम हो उसका दुश्मन भी कम दर्जा फ़ना होना चाहिये। ऐसी जिहालत की प्रार्थना करते करते कोई ऐसी प्रार्थना भी करने लग जायेगा कि ऐसे परमेश्वर आप रोटी बनाकर हम को खिलाईये मेरे मकान में झाडू लगाईये, कपड़े धो दीजिये और खेती बाड़ी भी कर दीजिये। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 7)

स्वामी दयानन्द का मज़कूरा बाला ख़्यालात निहायत ही माकूल है वाक़ई जो शख़्स ये प्रार्थना करता है कि इसके दुशमन फ़ना हो जायें और वही ज़िन्दा रहे वह एक जाहिल इन्सान है और उसकी इस क़िस्म की प्रार्थना ख़ुद स्वामी दयानन्द के अल्फ़ाज़ में महज़ जिहालत की प्रार्थना है। इससे भी बढ़कर अगर कोई शख़्स हमें इस क़िस्म की प्रार्थना की तालीम दे तो वह उसको उझल समझना चाहिये और जिस किताब में इस क़िस्म की प्रार्थनायें दर्ज हो वह किताब किसी सूरत में भी माकूल नहीं कही जायेगी। इस पहलू में स्वामी दयानन्द की पोज़िशन बहुत माकूल है इसी उसूल की बिना पर स्वामी दयानन्द ने दीगर मज़ाहिब की मुक़द्दस किताबों पर बड़ी सख़्त नुकताचीनी की है। मेरा मक़सद यहाँ पर ज़ाहिर करना नहीं है कि वह नुकताचीनी कहाँ तक दुरूस्त है या ग़लत है। बल्कि स्वामी दयानन्द के इस उसूल को मालूम करना है जिनकी बिना पर वह दीगर मज़ाहिब की मानी हुई मुक़द्दस किताबो को ख़ुदा का कलाम मानने से मुनकिर हैं और वह उनके मुक़ाबले में वेदों को ख़ुदा का कलाम मानते हैं। स्वामी दयानन्द के इस मैयार या उसूल का पता लगाने के लिये मैं मुनासिब समझता हूँ कि यहाँ पर स्वामी दयानन्द की इस नुकताचीनी की चन्द मिसालें दर्ज कर दी जायें जो कि उन्होंने कलामे मजीद पर की हैं। कुरआन मजीद अहले इस्लाम की मज़हबी किताब है और मुसलमान इसको ख़ुदा का कलाम मानते हैं। बल्कि कलामे मजीद का दूसरा नाम कलामुल्लाह यानी ख़ुदा का कलाम है। इस बात के बताने की ज़रूरत है कि कुरआन मजीद अरबी ज़बान में है। ये भी साफ़ बात है कि स्वामी दयानन्द अरबी से बिल्कुल नावाक़िफ़ थे। मगर चूँकि कुरआन के आला से आला तर्जुमे दुनिया की मुख़्तलिफ़ ज़बानों में मौजूद हैं और उनमें बअज़ तराजिम अहले इस्लाम के आला पाये के उलेमा के लिये हुए हैं। इसलिये ये ऐतराज़ कि चूँकि स्वामी दयानन्द अरबी नहीं जानते थे। लिहाज़ा वह कुरआन मजीद पर किसी क़िस्म की नुकताचीनी करने का हक़ नहीं रखते थे। चन्द दिन वज़नदार नहीं रह जाता जबकि यह कहा जाता है कि स्वामी दयानन्द ने उन ही तर्जुमों को अपने लिये काफ़ी समझा। जिनके बारे में उनको बताया गया था कि वह अहले इस्लाम के नज़दीक मुस्तनद हैं गो अहले इस्लाम उनको मुस्तनद न मानते हों चुनांचे ख़ुद स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद पर नुकता चीनी शुरू करने से पेशतर अपनी इस पोज़िशन को बदीं अल्फ़ाज़ वाज़ेह कर दिया है।
जो ये चौदहवाँ समुल्लास मुसलमानों के मज़हब की बाबत लिखा है वह सिर्फ़ कुरआन की रू से लिखा गया है किसी और किताब के अक़ाईद की रू से नहीं। क्योंकि मुसलमान कुरआन शरीफ़ ही पर पूरा ऐतक़ाद रखते हैं। अगरचे मुख़्तलिफ़ फ़िरके़ होने के बाइस किसी ख़ास लफ़ज़ के मअ़नी वग़ैरह में इख़्तिलाफ़ रखें। तो भी कुरआन के बारे में सब मुत्तफ़िक़ हैं। कुरआन अरबी ज़बान में है। इसका जो तर्जुमा उर्दू में मौलवियों ने किया है इस तर्जुमे को बाहरूफ़ देवनागरी बज़बान आर्य भाषा अरबी के बड़े बड़े आलिमों से सही करवाने के बाद लिखा गया है। अगर कोई कहे कि ये तर्जुमा ठीक नहीं है तो इसको लाज़िम है कि मौलवी साहेबान की ठीक किये हुये तर्जुमे की पहले तरदीद करे बाद अज़ां इस मज़मून पर क़लम उठाये। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 14)

स्वामी दयानन्द की मज़कूरा बाला तहरीर से ज़ाहिर होता है कि उनके पास कुरआन मजीद का कोई ऐसा तर्जुमा मौजूद था उनके ख़्याल में मौलवियों ने किया था और जिसको स्वामी दयानन्द ने बज़अ़म ख़ुद ‘‘अरबी के बड़े बड़े आलिमों से सही करवाया, बहुत अच्छा होता अगर स्वामी दयानन्द अरबी के उन बड़े बड़े आलिमों के नाम’’ भी ज़ाहिर कर देते। जिनसे कि वह तर्जुमा दुरूस्त करवाया था ताकि इस बात का फ़ैसला हो जाता कि आया ऐसे उलेमा का तर्जुमा अहले इस्लाम के नज़दीक सनद हो सकता है या नहीं। मगर स्वामी दयनन्द ने उनके नाम को पोशीदा रखने में जो मसलेहत समझी होगी उस पर बहस करना बड़ा मुश्किल है। ताहम इतना कहा जा सकता है कि स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद के जिस तर्जुमे की बिना पर कुरआन मजीद पर ऐतराज़ करते हैं वह तर्जुमा अहले इस्लाम के उलेमा का किया हुआ या मुसतनद मालूम नहीं होता। इसलिये जब तर्जुमा ही गै़र मुस्तनद हो तो इस पर जिस क़द्र भी नुकताचीनी की जायेगी वह ज़मीन पर गिर जायेगी। मैं इस बात को एक मिसाल के ज़रिये वाज़ेह कर देना चाहता हूँ कुरआन मजीद में इस बात को बतौर दावे के पेश किया गया है कि वह फ़साहत व बलाग़त में लासानी किताब है। चुनांचे मुख़ालिफ़ीने कुरआने मजीद को इसमें एक जगह बदीं अल्फ़ाज़ चैलेन्ज दिया गया है।

‘‘और वह जो हम ने अपने बन्दे (मुहम्मद स0अ0व0) पर (कुरआन) उतारा है। अगर तुमको इस में शक हो और ये समझते हो कि ये किताब ख़ुदा की किताब नहीं। बल्कि आदमी की बनायी हुई है और तुम अपने इस दावे में सच्चे हो तो इसी जैसी एक सूरत तुम भी बना लाओ और अल्लाह के सिवा अपने हिमायतियों को बुला लो। पस अगर (स) इतनी बात भी न कर सको और तुम हरगिज़ न कर सकोगे तो दोज़ख़ की आग से डरो जिसका ईंधन आदमी और पत्थर होंगे और वह (दोज़ख़) मुनकिरों के लिये दहकी दहकाई तैयार है (स)।’’

(तर्जुमा मौलवी हाफ़िज़ नज़ीर अहमद साहब) मज़कूरा बाला तर्जुमे में जिन अल्फ़ाज़ को (स) में कर दिया गया है उनको मद्दे नज़र रखना चाहिये क्योंकि इस तर्जुमे का स्वामी दयानन्द के ‘‘उलेमा’’ के तर्जुमे से मुक़ाबला करने में मदद मिलेगी स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास में जो कि कुरआन मजीद पर नुकताचीनी का बाब है। इस आयत के ऊपर भी ऐतराज़ किया है। लेकिन उन्होंने अरबी के उलेमा का जो तर्जुमा इस आयत का सत्यार्थ प्रकाश में दर्ज किया है वह बदीं अल्फ़ाज़ है और जो तुम इस चीज़ से शक सें हो जो हम ने अपने पैग़म्बर के ऊपर उतारी तो इसकी सी एक सूरत ले आओ और शाहिदों अपने को पुकारो। सिवाये अल्लाह के अगर हो तुम सच्चे फिर अगर न करो और हरगिज़ न करोगे तुम इस आग से डरो कि जिसका ईंधन आदमी हैं और काफ़िरों के वास्ते पत्थर तैयार किये गये हैं। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 14, ऐतराज़ नं. 8)

मज़कूरा बाला तर्जुमे के जिस आख़री हिस्से पर ख़त underline कर दिया गया वह क़ाबिले ग़ौर है। इस बात का पता नहीं लग सकता कि अरबी के जिन उलेमा ने स्वामी दयानन्द को ये सही तर्जुमा करके दिया था वह किस दारूलउलूम के सनद याफ़ता था। लेकिन मामूली अरबी जानने वाला शख़्स भी यह कह सकता है कि ये तर्जुमा बिल्कुल ग़लत है क्योंकि मज़कूरा बाला आयत में ऐसे अल्फ़ाज़ नदारद हैं कि जिनका तर्जुमा ‘‘काफ़िरों के वास्ते पत्थर तैयार किये गये हैं’’ हो सकता है पस जिस सूरत में कुरआन मजीद में ऐसी आयत ही नदारद है कि जिसका तर्जुमा सत्यार्थ प्रकाश में मज़कूरा बाला अल्फ़ाज़ में दिया गया है तो इस बेबुनियाद बात पर जिस क़द्र नुकताचीनी होगी वह नुकता चीनी भी ज़मीन पर गिर जायेगी। लिहाज़ा मज़कूरा बाला बेबुनियाद तर्जुमे की बिना पर स्वामी दयानन्द का ये लिखना कि उन्होंने कुरआन मजीद पर नुकताचीनी करने के लिये जिस तर्जुमे को आगे रखा है। वह बड़े बड़े मौलवियों और अरबी के उलेमा का सही किया हुआ तर्जुमा है। एक बेबुनियाद बात साबित होती है। ऐसी सूरत में सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें समुल्लास की बुनियाद दरिया के किनारे की रेत में डेह जाती है। ज़ाहिर है कि बुनियाद के गिरने के साथ ही इस पर जिस क़द्र महल तैयार किया गया हो वह भी गिर जाता है। लिहाज़ा सत्यार्थ प्रकाश का चौदहवाँ समुल्लास कुरआन मजीद के बारे में कोई दुरूस्त नुकता चीनी नहीं कहा जा सकता और वह सारे का सारा ज़मीन पर गिर जाता है।.........
...............................एडिटर.........................................

(स्वामी दयानन्द इस चैलेंज के जवाब में 14 सम्मुल्लास की 8 वीं समीक्षा में कहते हैं फेजी ने अकबर के समय में कुरआन बना लिया था, स्‍वामी दयानंद की यह एतिहासिक अज्ञानता  हैरत की बात है] सभी जानते हैं कि फेजी ने टीका अर्थात कमेंटरी में एक फन दिखाया था, उसने बिना नुक्ते यानि बिन्दी का प्रयोग किये बिना कुरआन की तफसीर लिखी थी, जिस पर इस्लामी दुनिया का गर्व है , यह सूरा भी हमेशा सच की ओर बुलाने को प्रेरित करती रही है,    न्याय के दिन Day of judgment तक रहेगी )
"And if you (Arab pagans, Jews, and Christians) are in doubt concerning that which We have sent down (i.e. the Qur'an) to Our slave (Muhammad, Peace be upon him), then produce a surah (chapter) of the like thereof and call your witnesses (supporters and helpers) besides Allah, if you are truthful." [Qur'an 2:23]
This is a challenge that still stands today, as no one has met this challenge in the over one thousand four hundred (1,400) years since it was first made. This is a point upon which we ask the reader to ponder

 दयानंद जी लिखते हैं----''भला कोई बात है कि उसके जैसी कोई सूरत न बने क्‍या अकबर बादशाह के ज़माने में मौलवी फैजी ने बे बिन्‍दू (नुक्‍ता) का कुरआन नहीं तैयार किया था.......
मौलाना सनाउल्‍लाह अमृतसरी इस समीक्षा पर ''हक प्रकाश बजवाब सत्‍यार्थ प्रकाश'' में जवाब देते हैं-
शोध कर्ता व आपत्ती कर्तो को यह तो खबर नहीं कि बे बिन्‍दू  वाक्‍य क्‍या होता है और उत्तम शैली क्‍या है, उन्‍होंने सुन लिया कि फैजी ने बिना बिन्‍दू(नुक्‍ता) की टीका लिखी थी तो वे समझे कुरआन का मुकाबला हो गया, भला स्‍वामी जी यदि फैज़ी की टीका कुरआन की भान्ति बे मिसाल होती तो पहले फैजी ही को कयों कुरआन के बारे में सन्‍देह न होता और वह क्‍यों इस घमंड में इस्‍लाम से विमुख न होता कि मैंने कुरआन की जैसी किताब लिख डाली है बस आपके जवाब में यही काफी है......
...............................एडिटर.........................................
......... इस बयान से मेरा मतलब कुरआन मजीद का डिफ़ेन्स करना नहीं है और न ही कुरआन मजीद को मेरे डिफे़न्स की ज़्रूरत है। बल्कि यहाँ पर मेरा मुद्दा स्वामी दयानन्द जैसे मुहक्किक की पोज़िशन का पता लगाना है कि वह किन वजूहात पर किसी मुक़द्दस या इलहामी किताब का फ़ैसला करने के लिये तैयार हैं। नक़र कुफ्ऱ कुफ्ऱ तबाशद को मद्दे नज़र रखते हुये ज़रूरी मालूम होता है कि मैं यहाँ पर चन्द ऐसी इबारतें सत्यार्थ प्रकाश में से नक़ल कर दूँ कि जिनकी बिना पर स्वामी दयानन्द ने कुरआन मजीद को इलहामी किताब मानने से इनकार कर दिया है। चुनांचे वह बदीं अल्फ़ाज़ है।
कुरआन (1)
सब तारीफ़ वास्ते अल्लाह के जो परवरदिगार आलमों का बख़्शिश करने वाला मेहरबान है।
स्वामी दयानन्द (1)
अगर कुरआन का ख़ुदा दुनिया का परवरदिगार होता और सब पर बख़्शिश और रहम किया करता तो दूसरे मज़हब वालों और हैवानात वग़ैरह को भी क़त्ल करवाने का हुक्म न देता।
कुरआन (15)
और जब लिया हम ने अहद तुम्हारा न डालो तुम लहू अपने आपस के और न निकाल दो किसी आपसी अपने को घरों अपने से फिर इक़रार किया तुम ने और तुम शाहिद हो फिर तुम वह लोग हो कि मार डालते हो आपस अपने को और निकाल देते हो एक फ़िरक़े को आप में से घरों उनके से।
स्वामी दयानन्द (17)
भला इक़रार करना और कराना महदूदुल अक़ल आदमियों की बात है या ख़ुदा की आपस में लहू न बहाना और अपने हम मज़हबों को घर से न निकालना और दूसरे मज़हब वालों का लहू बहाना और घर से उन्हें निकाल देना भला कौन सी अच्छी बात है। ये तो बेवकूफ़ी और तरफ़दारी से भरी हुई फज़्ाूल बात है।
कुरआन (20)
काफ़िरों पर लानत अल्लाह की।
स्वामी दयानन्द (20)
जिस तरह तुम ग़ैर मज़हब वालों को काफ़िर कहते हो उसी तरह क्या वे तुम को काफ़िर नहीं कहते और वह अपने मज़हब की तरफ़ से तुम्हें लानत देते हैं। ये सब झगड़े जिहालत के हैं।
कुरआन (33)
तुम पर मुरदार लहू और गोश्त सुअर का हराम है।
स्वामी दयानन्द (33)
जिस जानदार से ज़्यादा फ़ायदा पहुँचे मसलन् गाय वगै़रह उनके मारने की मुख़ालफ़त न करने से ख़ुदा दुनिया को नुक़सार पहुँचाने वाला साबित होता है और ईज़ा रसानी के गुनाह से बदनाम भी हो जाता है। ऐसी बातें ख़ुदा और ख़ुदा की किताब की हरगिज़ नहीं हो सकतीं।
कुरआन (35)
अल्लाह की राह में लड़ो, उनसे जो तुम से लड़ते हैं, मार डालो तुम उसको जहाँ पाओ क़त्ल से कुफ्ऱ बुरा है।
स्वामी दयानन्द (35)
बिला क़सूर किसी को मारना सख़्त गुनाह है। उनके नज़दीक मज़हब का क़बूल न करना कुफ्ऱ है और काफ़िर के क़त्ल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। उनका मज़हब गै़र मज़हब वालों से सख़्त क़लम करना सिखाता है। ये बात न ख़ुदा की न ख़ुदा के मोअ़तक़िद आलिम की और न ख़ुदा की किताब की हो सकती है।
कुरआन (36)
और अल्लाह नहीं दोस्त रखता फ़साद को। ऐ लोगो कि ईमान लाये हो दाखि़ल हो बीच इस्लाम के।
स्वामी दयानन्द (36)
अगर अल्लाह फ़साद नहीं चाहता तो क्यों आप ही मुसलमानों को फ़साद करने पर आमादा करता है। और मुफ़सिद मुसलमानों से दोस्ती करता है। अगर मुसलमानों के मज़हब में दाखि़ल होने से ख़ुदा राज़ी होता है। तो वह मुसलमानों का ही तरफ़दार है। सब दुनिया का ख़ुदा नहीं। इससे ये ज़ाहिर होता है कि न कुरआन ख़ुदा का बना हुआ न उसमें कहा हुआ सच्चा ख़ुदा हो सकता है।
कुरआन (48)
मुसलमानों को चाहिये कि वह काफ़िरों को दोस्त न बनायें, सिवायें मुसलमानों के जो कोई ये करे सो वह अल्लाह की तरफ़ से नहीं है।
स्वामी दयानन्द (48)
अब देखिये तअस्सुब की बातें जो दीने इस्लाम में नहीं हैं। उनको काफ़िर क़रार दिया गया है। गै़र मज़हब के नेकूकारों से भी दोस्ती न रखना और बद मुसलमानों ही से दोस्ती रखने की तालीम देना ख़ुदा के शायान नहीं। इसलिये ये कुरआन कुरआन का ख़ुदा और मुसलान लोग महज़ तअस्सुब जिहालत से पुर हैं और मुसलमान लोग तारीकी में हैं।
कुरआन (52)
और मदद दे हम को ऊपर क़ौमे काफ़िरों के।
स्वामी दयानन्द (52)
देखिये मुसलमानों की ग़लती कि जो अपने मज़हब के नहीं। उनके मारने के वास्ते ख़ुदा से दुआ करते हैं। क्या ख़ुदा सादा लौह है जो उनकी बात मान लेगा।
कुरआन (58)
और न बन्द करें हाथों अपने को पस पकड़ो उनको और मार डालो उनको जहाँ पाओ।
स्वामी दयानन्द (58)
अब देखिये परले दर्जे के तअस्सुब की बात कि जो मुसलमान न हो। इसको जहाँ पाओ मार डालो। और मुसलमान को न मारो, भूल से भी मुसलमान के मारने में दोज़ख़ और औरों के मारने में बहिश्त मिलेगा। ऐसी तालीम कुऐं में डालनी चाहिये, ऐसी किताब ऐसे पैगम्बर, ऐसे ख़ुदा और ऐसे मज़हब से सिवाये नुक़सान के फ़ायदा कुछ भी नहीं। उनको न होना अच्छा है। ऐसे जाहिलाना मज़हबों से अक़्लमंदों को अलेहदा रहकर वेदिक अहकाम को तसलीम करना चाहिये क्योंकि उनमें झूठ जरा भी नहीं है।
कुरआन (76)
सवाल करते हैं तुझ को लूटों से कि लूटें वास्ते अल्लाह के और रसूल के हैं पस डरो अल्लाह से।
स्वामी दयानन्द (76)
तअज्जुब है कि जो लूट मचावें, डाकू के काम करें, करावें वह ख़ुदा पैग़म्बर और ईमान्दार कहलावें। साथ ही अल्लाह का डर बतलाते और डाका मारते जाते हैं। फिर ये कहते शर्म नहीं आती कि हमारा मज़हब अच्छा है। इससे बढ़कर और क्या बुरी बात हो सकती है कि तअस्सुब को छोड़कर सच्चे वेदिक धर्म को मुसलमान क़बूल नहीं करते।
कुरआन (77)
और काटे जड़ काफ़िरों की। पस मारो ऊपर गर्दन के और मारो उनमें से हर एक पूरी पर।
स्वामी दयानन्द (77)
वाह जी वाह ख़ुदा और पैग़म्बर ख़ूब रहम दिल हैं। जो लोग मज़हबे इस्लाम में नहीं। उन काफ़िरों की जड़ काटने इनकी गर्दन मारने और उनको जोड़ों को काटने का ख़ुदा हुक्म देता है और इस काम में उनका ममदू व मअ़ाविन बनता है। क्या ये ख़ुदा रावण से कुछ कम है। यह सब फ़रेब कुरआन के मुसन्न्ािफ़ का है। ख़ुदा का नहीं। अगर ख़ुदा का हो। तो ऐसा ख़ुदा हम से दूर रहे और हम उससे दूर रहें।
कुरआन (87)
ऐ लोगो जो ईमान लाये हो लड़ो उन लोगों से जो लोगों से पास तुम्हारे हैं, काफ़िरो में से।
स्वामी दयानन्द (87)
देखिये मुहसिन कशी की तालीम, ख़ुदा मुसलमानों को सिखलाता है कि पड़ोसियों और ग़्ाुलामों से लड़ाई करो और मौक़ा पाकर लड़ो या क़त्ल करो।
कुरआन (128)
और वह लोग कि ईज़ा देते हैं। मुसलमानों को और मुसलमान औरतों को बगै़र इसके कि बुरा किया हो उन्होंने पस तहक़ीक़ उठाया उन्होंने बुहतान और गुनाह ज़ाहिर लानत है। उन पर मारे जायें। जहाँ पाये जायें पकड़े जायें और क़त्ल किये जायें।
स्वामी दयानन्द (128)
वाह रे ग़दर मचाने वाले ख़ुदा और नबी तुम से तो बेरहम दुनिया में बहुत थोड़े होंगे। ये जो लिखा है कि गै़र लोग जहाँ मिलें उनको पकड़ों और मारों। वैसा ही अगर मुसलमानों से गै़र मज़हब वाले बरताव करें। तो उनको ये बात बुरी लगेगी या नहीं। वाह कैसे मूज़्ाी पैगम्बर हैं कि ख़ुदा से दूसरें को दुख देने की दुआ माँगते हैं। उससे उनकी तरफ़दारी, ख़ुदग़र्ज़ी और सख़्त ज़्ाुल्म का सबूत मिलता है।
कुरआन (140)
पस जब मुलाक़ात करो तुम इन लोगों से कि काफ़िर हुये पस मारो गर्दनें उनकी यहाँ तक कि जब चूर कर दो उनको। पस मुहकिम करो। कै़द करना और बहुत बस्तियाँ थीं कि वह सख़्त थीं कुव्वत में बस्ती तेरी से जिसने निकाल दिया तुझ को। हलाक किया हम ने उनको पस न हुआ कोई मदद देने वाला वास्ते उनके।
स्वामी दयानन्द (140)
इसलिये ये कुरआन, ख़ुदा और मुसलमान ग़दर मचानेऽह्न तकलीफ़ देने और अपना मतलब निकालने वाले ज़ालिम हैं। जैसा यहाँ लिखा है। वैसा ही अगर दूसरा कोई गै़र मज़हब वाला मुसलमानों पर करे। तो मुसलमानों को भी वैसा ही दुख जैसा कि दूसरों को देते हैं हो या नहीं और ख़ुदा की तरफ़दारी देखिये। जिन्होंने मुहम्मद स0अ0व0 साहब को निकाल दिया। उनको ख़ुदा ने हलाक कर डाला।
कुरआन (142)
तहक़ीक़ अल्लाह दोस्त रखता है। उन लोगों को कि लड़ते हैं बीच राह उसकी के।
स्वामी दयानन्द (142)
वाह ठीक है। ऐसी ऐसी बातों की हिदायत करके बेचारे एक अरब के बाशिन्दों को सबसे लड़ाया दुशमन बनाकर बाहम तकलीफ़ दिलाई और मज़हब का झंडा बुलन्द करके लड़ाई फैलाई। ऐसे को कोई अक़्लमंद ख़ुदा कभी नहीं  मान सकता। जो क़ौम में फ़साद बढ़ा दे। वही सब को तकलीफ़ देह होता है।
स्वामी दयानन्द
अब इस कुरआन के मज़मून को लिखकर आक़िलों के पेशे नज़र करता हूँ कि ये किताब कैसी है मुझ से पूछो। तो ये किताब न ख़ुदा न आलिम की बनाई हुई और न इल्म की हो सकती है। ये तो बहुत थोड़े से नुक़्स ज़ाहिर किये। इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपनी उम्र बेफ़ायदा ज़ाये न करें। जो कुछ इस में थोड़ी सी सच्चाई है वह वेद वगै़रह इल्मी किताबों के मुताबिक़ होने से जैसे मुझको मन्जूर है वैसे और भी मज़हब के ज़िद और तअस्सुब से मुबर्रा आलिमों और आक़िलों को मन्‍जूर है। इसके सिवाये जो कुछ इसमें हैं वह सब लाइल्मी की बातें और तोहमात हैं। और इन्सान की रूह को मिस्ल हैवान के बनाने, अमन में ख़लल डालकर फ़साद मचाने, इन्सानों में नाइत्तफ़ाक़ी फैलाने, बाहम तकलीफ़ को बढ़ाने वाला मज़मून है और खै़र व बरकत दोष का तो गोया कुरआन ख़ज़ाना ही है।

मज़कूरा बाला नुकताचीनी को मैंने इसलिये नक़ल किया है ताकि स्वामी दयानन्द की इलहामी किताब के बारे में सही पोज़िशन का पता लग सके ये कहना कुरआन मजीद के जिन तराजिम की बिना पर स्वामी दयानन्द ने इस पर नुकताचीनी की है इन तराजिम में कुरआन मजीद के सही मफ़हूम को समझकर नुकता चीनी की है एक बहस तलबे मआमला है जिसका किसी क़द्र जवाब इस मज़मून के शुरू में दिया जा चुका है। जैसे कि मैं पहले भी अर्ज़ कर चुका हूँ। इस जगह मेरा मुद्दा कुरआन मजीद को डिफे़न्ड करना नहीं है बल्कि स्वामी दयानन्द की तहक़ीक़ात से फ़ायदा उठाना है कि वह किन वजूहात पर किसी किताब के इलहामी या ख़ुदा के कलाम हो सकते हैं। चुनांचे उनके मज़कूरा बाला ख़्यालात से जो कि उन्होंने कुरआन मजीद के बारे में ज़ाहिर किये हैं, मुख़्तसरन् अल्फ़ाज़ में नतीजा निकाला जा सकता है कि वह किसी ऐसी किताब को इलहामी नहीं मान सकते जिसमें कि हैवानों के मारने, अपने दुशमनों से सख़्ती करने, उनको क़त्ल करने गै़र मज़हब के लोगों को काफ़िर कहने और उनको क़त्ल करने वग़ैरह की तालीम मौजूद हो। या दूसरे लफ़ज़ों में ख़ुदा का कलाम वही किताब हो सकती है, जिसमें इन्सानों या हैवानों के क़त्ल करने की तालीम मौजूद न हो वगै़रह वगै़रह, उन मैअ़यारों में से जो स्वामी दयानन्द की तहरीर के मुतालऐ से मज़हबी किताबों के इलहामी होने या न होने के बारे में क़ायम किये जा सकते हैं। ये एक मैअ़यार या उसूल है। स्वामी दयानन्द ने इसी मैअ़यार से अहले इस्लाम की मुक़द्दस किताब को परखा और इसी उसूल की बिना पर इसको इलहामी किताब के दर्जे से साक़ित कर दिया और इसकी बजाये वेदों को इलहामी या ख़ुदा का कलाम क़रार दिया। मैं ये नहीं कहूँगा कि स्वामी दयानन्द का ये मैअ़यार ग़लत है। बल्कि देखना चाहिये कि आया इसी मैअ़यार पर अगर वेदों को रखकर परखा जाये तो वह इलहामी या ख़ुदा का कलाम हो सकता है या नहीं। मैं इस बात पर बहस नहीं करूँगा कि वेद में ख़रगोश, हिरन, ऊँट, बकरा, नील गाय वगै़रह के मारने की इजाज़त है। ये तो वेदों की मामूली सी बात है। (देखो यजुर्वेद अध्याय 13) बल्कि मैं इस बात पर बहस करूँगा कि वेद में इन्सानों के साथ किस क़िस्म का सुलूक रवा रखा गया है।

चौथी फ़सल
स्वामी दयानन्द और वेद

पेशतर इसके कि स्वामी दयानन्द के पेशकरदा मैअ़यार पर वेद को परखा जाये ये ज़रूरी मालूम होता है कि मैं एक ऐतराज़ का जवाब दे दूँ जिस वक़्त मैंने पहले ही पहल वेदों के इलहामी होने से इनकार का ऐलान किया था उस वक़्त वेदों को इलहामी मानने वालों ने मेरी बात का जवाब देने की बजाये ये हुज्जत खड़ी की थी कि चूँकि

तुमने वेदों को नहीं पढ़ा इसलिये तुम क्योंकर कह सकते हो कि वेद ख़ुदा का कलाम नहीं है। पस तुम्हारा कोई हक़ नहीं है कि तुम वेदों पर नुकता चीनी करो। अगर इस हुज्जत को सही तसलीम कर लिया जाये तो सवाल पैदा होगा कि स्वामी दयानन्द का क्या हक़ था कि उन्होंने कुरआन पर नुकताचीनी की जबकि ये अम्र वाक़िआ है कि स्वामी दयानन्द अरबी, फ़ारसी, उर्दू और अंग्रेज़ी से क़तई महरूम थे और ये भी अम्र वाक़िआ है कि स्वामी दयानन्द के ज़माने में अगरचे कुरआन अरबी में मौजूद था और इसके तराजिम फ़ारसी उर्दू और अंग्रेज़ी में भी मौजूद थे मगर हिन्दी में इसका कोई तर्जुमा नहीं था और स्वामी दयानन्द सिवाये हिन्दी और संस्कृत के मज़कूरा बाला ज़बानों से क़तई नाबलद थे। इसी तरह स्वामी दयानन्द का क्या हक़ था कि उन्होंने सिखों की मुक़द्दस किताब ग्रंथ साहिब पर नुकता चीनी की। हालाँकि ये किताब गुरुमुखी में है और स्वामी दयानन्द गुरुमुखी से बिल्कुल नाआशना थे



 पस अगर वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों की मज़कूरा बाला हुज्जत को तसलीम कर लिया जाये तो स्वामी दयानन्द की पोज़िशन बहुत नाज़्ाुक हो जाती है। अगर स्वामी दयानन्द इस हुज्जत का क़ायल होता तो वह कम से कम कुरआन और गुरूग्रंथ साहिब के बारे में एक लफ़्ज़ भी न लिख सकता। मगर स्वामी दयानन्द एक माकूल इन्सान था और वह इस क़िस्म की नामाकूल हुज्जतों को ज़्यादा वुक़अ़त नहीं देता था जिस तरह इस ने दीगर मज़ाहिब की कुतुबे मुक़द्दसा के इन तराजिम को जो कि उसको मुसतनद बताये गये थे गो वह दर हक़ीक़त मुसतनद न हों। आगे रखकर उन पर नुकता चीनी करते हुए अपनी राय का इज़हार किया है इसी तरह हर एक शख़्स को ये हक़ हासिल है कि वह स्वामी दयानन्द के वेद भाष्‍य को जो कि स्वामी दयानन्द और आर्य समाज के नज़दीक मुसतनद है, सामने रखकर वेदों के मुतअल्लिक़ अपनी राय का इज़हार करे। स्वामी दयानन्द ने कुरआन पर नुकता चीनी करने से पहले ही लिख दिया था कि-
‘‘अगर कोई कहे कि ये तर्जुमा ठीक नहीं है तो इसको लाज़िम है कि मौलवी साहेबान के किये हुए तर्जुमों की पहले तरदीद करे इसके बाद इस मज़मून पर क़लम उठाये। दीबाचा ज़िमनी समुल्लास नम्बर 14 सत्यार्थ प्रकाश’’।
इसी तरह जो शख़्स स्वामी दयानन्द के वेद  भाष्‍य  को मुसतनद मानकर इसकी बिना पर वेदों के मुतअल्लिक़ कुछ लिखता है। इसका वह मज़मून उस वक़्त तक रद्द नहीं हो सकता जब तक कि स्वामी दयानन्द के भाषीय को ग़लत साबित करके स्वामी दयानन्द पर वही फ़तवा न लगाया जाये जो कि उसने महेधर वगै़रह मुफ़स्सिरीन पर लगाया है। ग़ालिबन् कोई शख़्स भी स्वामी दयानन्द पर ऐसा फ़तवा लगाने के लिये तैयार  नहीं  होगा। चूँकि स्वामी दयान्नद वेदों को कलामे इलाही मानता था और उनके लिये इसके दिल में अज़हद इज़्ज़त थी और वेदों की ख़ातिर ही उसने दीगर मज़हब की मुक़द्दस किताबों का खंडन किया। इसलिये ये नामुम्किन है कि उसने वेदों की तफ़सीर करते वक़्त इस नियत से काम लिया हो जिस नियत से कि इसके नज़दीक दीगर मुफ़स्सिरीन वेद ने काम लिया था। वेदों के बारे में स्वामी दयानन्द के क़ौल की तसदीक़ स्वामी दयानन्द की तफ़सीर बढ़कर और किसी तरह नहीं हो सकती। मैं इस बात को ज़रूरी नहीं समझता कि यहाँ पर वेद मंतरों की इबारत को नक़ल करूँ बल्कि इस तर्जुमे को भी मअ़ हवालात के पेश करता जाऊँगा जो कि स्वामी दयानन्द ने किया है और जिसको मैंने लफ़्ज़ बालफ़्ज़ उर्दू हरूफ़ में किताब की शक्ल में शायेअ़ कर दिया है। सिर्फ़ इस बात को देखना चाहता हूँ कि आया वेदों को इसी रोशनी में पढ़कर जिस रोशनी में कि स्वामी दयानन्द को पेश करता है। उनको ख़ुदा का कलाम माना जा सकता है या नहीं। मैं अब स्वामी दयानन्द के यजुर्वेद  भाष्‍य  में से चन्द मंत्र यहाँ पर पेश करूँगा और ये दिखाऊँगा कि ख़ुद स्वामी दयानन्द का उसूल या सिद्धान्त क्या है जो कि वह कुरआन पर नुकताचीनी करते हुए ज़ाहिर कर चुके हैं। और जिसकी चन्द मिसालें मैं ऊपर दर्ज कर चुका हूँ। और वेद क्या तालीम देता है आया वह तालीम स्वामी दयानन्द के ख़ुद मुक़र्रर कर्दा मैयार सिद्धान्त के मुताबिक़ ख़ुदा की किताब की तालीम हो सकती है या कि महज़ इन्सानी दिमाग़ की इख़्तराअ़ है चुनांचे -

धर्म के मुख़ालिफ़ों को ज़िन्दा आग में जला दो

स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि जिस किताब की ये तालीम हो कि जो तुम्हारे मज़हब को नहीं मानते उनको क़त्ल कर डालो ऐसी तालीम को कुऐं में डाल देना चाहिये। क्यों कि ऐसी किताब और इस किताब के ख़ुदा को मानने में सिवायें नुक़सान के कुछ फायदा नहीं है। उनका न होना अच्छा है, ऐसी जाहिलाना मज़हबों से अक़्लमंदों को अलेहदा रहकर वेदों के अहकाम को तसलीम करना चाहिये क्यों कि इनमें झूठ ज़रा भी नहीं है। ये स्वामी दयानन्द का पेश करदा मैअ़यार है। अब इसी मैअ़यार पर वेद के अहकाम को परखना चाहिये। वेद में लिखा है।
‘‘ऐ राजपुरूष! आप धर्म के मुख़ालिफ़ दुशमनों को आग में जला डालें ऐ जाह व जलाल वाले पुरूष वह जो हमारे दुशमनों को हौसला देता है। आप इसको उल्टा लटकाकर ख़ुश्क लकड़ी की तरह जलायें। (यजुर्वेद 13/12)’’

चूँकि वेद के मज़कूरा बाला हुक्म में धर्म के मुख़ालिफ़ों को ज़िन्दा आग में जला डालने की तालीम है इसलिये स्वामी दयानन्द के ख़ुद पेशकरदा मैअ़यार के मुताबिक़ ये तालीम कुऐं में डालने के लायक़ है या मानने के लायक़?

 इस का फ़ैसला बड़ा आसान है और स्वामी दयानन्द के अपने ही अल्फ़ाज़ में ऐसी किताब और इस किताब के ख़ुदा को मानने में सिवाये नुक़सान के कुछ फ़ायदा नहीं है। क्योंकि बक़ौल स्वामी दयानन्द इनका न होना अच्छा है और कि ऐसी जाहिलाना तालीम से अक़्लमंदों को अलेहदा रहना चाहिये चूँकि स्वामी दयानन्द का इरशाद निहायत माकूल है। इसलिये मैं ऐसी किताब को बक़ौले स्वामी दयानन्द सरासर नुक़सानदेह समझता हूँ और मैं इसको किसी सूरत में ख़ुदा की किताब तसलीम नहीं कर सकता। दीगर अक़्लमंदों को भी बकौ़ल स्वामी दयानन्द ऐसी जाहिलाना तालीम से अलेहदा रहना चाहिये।
दुशमनों के गाँव को उजाड़ दो
स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि ये सख़्त बेशर्मी की बात है कि एक तरफ़ तो लूट मचाई जाये, डाके मारे जायें और दूसरी तरफ़ ये भी कहा जाये कि ये ख़ुदा की तालीम है। जिस मज़हब में ऐसी तालीम हो इसको तरक करके वेदों को न मानना सख़्त बुरी बात है। स्वामी दयानन्द का मज़कूरा बाला मैअ़यार बहुत उमदा है। अब इसी मैअ़यार पर वेदों की तालीम को रखकर देखना चाहिये। वेद में लिखा है।
‘‘ऐ तेजधारी विद्वान पुरूष! आप तेज़-रो दुश्मन के खाने पीने या दीगर काम काज के मक़ामात को अच्छी तरह उजाड़ें और इनको अपनी तमाम ताक़त से मारें। (यजुर्वेद 13/13)’’
चूँकि मज़कूरा बाला वेद मंत्र में जिसका कि स्वामी दयानन्द ने ख़ुद ही तर्जुमा किया। दुशमनों के खेतों को उजाड़ने और उनके गाँव को लूटने का हुक्म है। इसलिये बक़ौल स्वामी दयानन्द ये सख़्त शर्म की बात है कि ऐसी तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब किया जाये। मेरे नज़दीक स्वामी दयानन्द की बात ज़्यादा माकूल है। बानिस्बत इस हुक्म के जो कि वेद में ख़ुदा की तरफ़ मनसूब किया जाता है। अगर मैं ऐसी तालीम को तर्क न करूँ तो ये बकौ़ल स्वामी दयानन्द सख़्त बुरी बात होगी। यही वजह है कि मैं वेद को ख़ुदा का कलाम नहीं मानता और नहीं मान सकता और किसी भी हक़ पसन्द को इस क़िस्म की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करते हुए डरना चाहिये।
अपने मुख़ालिफ़ों को शेर के मुँह में डाल दो
स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त है कि जिस तरह दूसरे लोग अगर तुम से दुशमनी करें तो वह तुम को बुरे लगते हैं। इसी तरह अगर तुम उनसे दुशमनी करोगे। तुम उनको बुरे लगोगे पस दुशमनी की बिना पर दूसरों को क़त्ल करना और अपने आप को दुशमनी से बाज़ न रखना मूज़्ाी लोगों का काम है क्योकि ये सख़्त तरफ़दारी और ख़ुदग़र्ज़ी की बात है। स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त बहुत उमदा है मगर वेद इसके बारे में क्या कहता है, लिखा है-
‘‘जिस ईज़ारसाँ शख़्स की हम लोग मुख़ालफ़त करते हैं या जो ईज़ा देने वाला हम से दुशमनी करता है इसको हम शेर वग़ैरह के मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 15/15)’’
मज़कूरा बाला वेद मंत्र में बक़ौल स्वामी दयानन्द इस बात की तालीम है कि अगर हम किसी से दुशमनी करें तो वह शख़्स शेर के मुँह में डाला जाये और अगर वह शख़्स हम से दुशमनी करे तो भी उसी को शेर के मुँह में डाला जाये गोया दोनों सूरतों में इसी को मुलज़िम गरदाना गया है पस बक़ौल स्वामी दयानन्द आया ये सख़्त मूज़्ाीपन है या नहीं। इस का फ़ैसला अक़्लमंद ख़ुद कर सकते हैं। इस में सख़्त तरफ़दारी और ख़ुदग़र्ज़ी पायी जाती है क्योंकि अगर दुशमनी की सज़ा शेर के मुँह में डालना ही है तो फिर हम को किसी से दुशमनी करने की पादाश में शेर के मुँह में क्यों न डाला जाये पस बक़ौल स्वामी दयानन्द ये महज़ ख़ुदग़र्ज़ लोगों की तालीम है। ख़ुदा का इसमें कोई दख़ल नहीं है। स्वामी दयानन्द का सिद्धान्त है कि जिस तरह तुम दूसरों को दुष्ट और काफ़िर कहते हैं उसी तरह वह तुमको दुष्ट और काफ़िर कहते हैं।
द्वेष करने वालों को हवा से हलाक करो
फिर क्या वजह है कि उनको तो क़त्ल किया जाये और तुमको छोड़ दिया जाये जिस किताब में ऐसी तालीम हो। वह ख़ुदा की किताब नहीं हो सकती। स्वामी दयानन्द के इस सिद्धान्त के मुताबिक़ वेद का दूसरा मंत्र लेकर देखा जाता है चुनांचे लिखा है।
‘‘जिस दुष्ट से हम लोग द्वेष करें या जो दुष्ट हम से द्वेष करें हम उसको हवाओं से हलाक करें। (यजुर्वेद 15/16)’’
स्वामी दयानन्द के मज़कूरा बाला सिद्धान्त के मुताबिक़ वेद का ये मंत्र किसी सूरत में भी ख़ुदा का कलाम नहीं हो सकता क्योंकि इसमें द्वेष करने वाले दोनों है मगर एक को तो हलाक करने की तालीम है और दूसरे को जो द्वेष करता है हलाक करने की कोई तालीम नहीं है। ये महज़ इन्सानी दिमाग़ की इख़्तराअ़ है। पस बक़ौल स्वामी दयानन्द ये बात छोड़ने के क़ाबिल है।
राजा हमारे दुशमन को शेर के मुँह में डाल दे
स्वामी दयानन्द ने लिखा है कि जो लोग बेगुनाहो को मारते, ग़दर मचाते और दूसरों से दुशमनी करते हैं वह सख़्त मूज़्ाी हैं और ये कि जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो वह किताब अब जाहिलों की किताब समझनी चाहिये। स्वामी दयानन्द का इरशाद बहुत माकूल है मगर वेद में लिखा है -
‘‘हम लोग जिससे दुशमनी करें और जो हम से दुशमनी करे इसको हम शेर वग़ैरह के मुँह में डाल दें। राजा भी इसको शेर के मुँह में डाल दे। (यजुर्वेद 17/15)’’
ये स्वामी दयानन्द का वेद मंतर का ख़ुद कर्दा तर्जुमा है। इसमें इन लोगों को जो गो हम से दुशमनी वग़ैरह रखते हों मगर चूँकि हम इन से दुशमनी रखते हैं इसलिये इनको शेर के मुँह में डाल देना चाहिये और अगर हम ख़ुद ऐसा न कर सकें। तो राजा की मदद से इसको शेर के पिंजरे में डाल देना चाहिये ख़्वाह वह भला मानस कितना ही चिल्लाये कि महाराज मैं आप का दुशमन नहीं हूँ बेशक वह हमारा दुशमन नहीं है लेकिन हम तो उसके दुशमन हैं इसलिये इसकी सज़ा मौत है कैसा आला इनसाफ़ है। इसी किताब को ख़ुदा का कलाम मानना बक़ौल स्वामी दयानन्द सख़्त जिहालत है।
अपने मुख़ालिफ़ों को पानी में ग़र्क़ कर दो
अगर ख़ुदा नख़्वास्ता हम किसी ऐसी जगह रहते हों जहाँ अपने दुशमनों को हम शेर के मुँह में न डाल सकें या शेर हम को वहाँ न मिले तो हम अपने दुशमनों से क्या सुलूक करें इसका हल वेद में लिखा है-
‘‘जिससे हम द्वेष करते हैं या जो हम से द्वेष करता है इसको हम हवा और पानी के दुख देने वाले गन रूपी मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 18/15)’’
या दूसरे अल्फ़ाज़ मे हम को चाहिये कि अपने दुशमनों को जहाज़ में भरकर समन्दर में ग़र्क़ कर दें या कुऐं, तालाब और दरिया में डुबों दें अलग़रज़ इनको इस दुनिया से रूख़सत ज़रूर कर देना चाहिये क्योंकि वेद की यही तालीम है।
अपने दुशमनों को दरिन्दों से चरवा दो
मगर जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वाले हैं उनकी तमाम कोशिश यही होनी चाहिये कि वह अपने दुशमनों को दरिन्दों के मुँह में डाल दें, चुनांचे लिखा है-
‘‘हम लोग जिस दुष्ट से द्वेष करें या जो हम से द्वेष करे उसको हम लोग ख़ूंख़ार जानवरों के मुँह में डाल दें। (यजुर्वेद 19/15)’’
इससे मालूम होता है कि वेदों के ऐसे ऐसे मंत्र इस वहशी ज़माने की याद हैं जबकि इन्सानों को दरिन्दों से चरवा डाला जाता था चुनांचे रोमियों के ज़माने में गुलामों को शेरों के आगे डाल कर फड़वा डाला जाता था अगर  गुलाम लोग अपने आका़ओं के बदख़्वाह नहीं होते थे मगर चूँकि आक़ा इनको नापसन्द करते थे।
इसलिये वेद मंत्र के ऐन मुताबिक़ वह  गुलामों  को दरिन्दों से मरवा डालते थे। अंडरविकलीज़ नामी  गुलाम की इसी क़िस्म की कहानी बहुत से लोगों ने सुनी होगी।
दुशमनों को तड़पा तड़पा कर मारो
वेद के मंत्र जिस क़िस्म के ज़माने की याद दिलाते हैं उसको सामने लाकर बदन पर रौंगटे खड़े हो जाते हैं।
  • स्वामी दयानन्द ने हर चन्द इस बात को साबित करने की कोशिश की है कि वेद वहशी लोगों के गीत नहीं हैं मगर ख़ुद उनके वेद भाष्‍य से जाबजा इस बात का पता लगता है कि वे दरहक़ीक़त इस वहशी ज़माने की मुक़द्दस यादगार है जबकि  गुलामों  , महकूमों , या दुशमनों को अनवाअ़ व अक़साम की अज़ियतों से हलाक किया जाता था और हलाक करने वाले, इसमें ख़ास लज़्ज़त पाते थे। चुनांचे स्वामी दयानन्द के वेद भाषीय में लिखा है
  • ‘‘जिनसे हम लोग नफ़रत करते हैं या जिन को हम नाराज़ करते हैं या जो हम को दुख देते हैं उनको हम इन हवाओं के मुँह में डाल कर इस तरह दुख दें जिस तरह बिल्ली के मुँह में चूहा। (यजुर्वेद 65-66)’’

इससे मालूम होता है कि जिन लोगों को पुरोहित लेाग नापसन्द करते थे या जिन से वह नाराज़ हो जाते थे उनको वह हवा में मुअ़ल्लक़ लटकाकर इस तरह तड़पा तड़पा कर मारा करते थे जिस तरह बिल्ली चूहे को मारती है चुनांचे तीन मंतरों में मुतवातिर इस बात का ज़िक्र आया है कि जिन लोगों से तुम नफ़रत करते हो या जिन लोगों से तुम नाराज़ हो या जो लोग तुम्हारी तकलीफ़ का मौजब हैं, उनको इस तरह तड़पा तड़पा कर मार दो जिस तरह बिल्ली चूहे को मारती है अगरचे पीछे लिखा जा चुका है कि वेद में उनको उल्टा करके ज़िन्दा आग में जला डालने की सज़ा भी तजवीज़ की गयी है। मगर चूहे की तरह तड़पा तड़ापा कर मारना बेरहमी और संग दिली की इन्तहा है। जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो वह किताब बक़ौल स्वामी दयानन्द इन्सान की रूह को मिस्ल हैवान के बनाने के, अमन में ख़लल डालने, फ़सादे मचाने, इन्सानों में ना इत्तफ़ाक़ी फैलाने, उनकी तकलीफ़ को बढ़ाने वाली साबित होती है और बक़ौल स्वामी दयानन्द ऐसी किताब न ख़ुदा की बनाई हो सकती है न किसी आलिम की।
दुशमनों के गाँव को जला दो
दुशमनो के साथ जिस बेरहमी का सुलूक करने की वेद में तालीम दी गयी है वह अपनी नज़ीर आप ही है। इसके अलावा दुशमनों के गाँव को जलाकर ख़ाक सियाह कर देने की वेद में जा बजा तालीम दी गयी है चुनांचे ख़ुद स्वामी दयानन्द एक मंतर का बदीं अल्फ़ाज़ तर्जुमा करता है।
‘‘ऐ ताक़तवर और रोशन ज़मीरे आलम इन्सान! जिस तहर हम लोग रोज़ खुले स्वभाव वालों के गाँव को आग की मानिन्द मारने वाले तुझ ख़ूबसूरत विद्वान को सब तरह से धारण करें, उसी तरह तू हम को धारण कर। (यजुर्वेद 26-11)’’
ऐ राजा! जिस तरह हिफ़ाज़त करने वाले आलिम को पुत्र शागिर्द सुख देने वाले..................आग वग़ैरह पदार्थों को हासिल करके वेदों के इल्म को जानने वाला होकर दुशमनों को मारने वाला और दुशमनों के गाँव को तबाह करके आप की जाह व हशमत को दो बाला करता है उसी तरह दीगर विद्वान लोग भी आपको विद्या और रोने से तरक़्क़ी दें। (यजुर्वेद 33-11)
मज़कूरा बाला वेद मंत्रों से साफ़ ज़ाहिर है कि किस तरह दुशमनों के गाँव को आग लगाने और उनको तबाह करने के काम को ‘‘रोशन ज़मीर इन्सानों’’ और ‘‘वेदों के आलिमों’’ का फ़र्ज़ मनसबी क़रार दिया गया है। स्वामी दयानन्द ने कुरआन और बाइबिल पर नुकता चीनी करते हुए जाबजा अपने उसूल का बदीं अल्फ़ाज़ इज़हार कियाहै कि जिस किताब में इस क़िस्म की तालीम हो। वह आलिमों की किताब नहीं हो सकती बल्कि इसको वहशियों की किताब कहना चाहिये। स्वामी दयानन्द की इस कसौटी पर परखने से इस बात का अफ़सोस से इक़रार करना पड़ता है कि वेद भी आलिमों की किताब साबित नहंी होते। उसको ख़ुदा का कलाम मानना तो महज़ कुफ्ऱ है।
औरतों को क़त्ले आम करने का हुक्म
स्वामी दयानन्द ने कुरआन पर नुकता चीनी करते हुए ऐतराज़ नम्बर 140 में अपने ख़्यालात को बदीं अल्फ़ाज़ ज़ाहिर किया है कि जो किताब या ख़ुदा इस क़िस्म की तालीम देते हों कि बिला वजह ग़दर मचाओ, बैठे बिठाये लोगों को ख़्वाह मख़्वाह तकलीफ़ दो और अपने मतलब की ख़ातिर दूसरों की गर्दनें काटो वह किताब न तो ख़ुदा की किताब हो सकती है और न ऐसा ख़ुदा मानने के लायक़ है। कुरआन में इस क़िस्म की तालीम है या नहीं। इस बात का जवाब कुरआन वाले दें। लेकिन इस में शक नहीं कि स्वामी दयानन्द का मैअ़यार बहुत दुरूस्त है। देखना चाहिये कि स्वामी दयानन्द वेदों से कैसी तालीम निकालते हैं पहले दिखाया जा चुका है कि वेदों की तालीम के मुताबिक़ दुशमनों से किस क़िस्म का सुलूक किया जाना चाहिये। वह तो मर्दों की बाबत था। अब औरतों की बाबत भी देखो चुनांचे लिखा है।
‘‘ऐ सिपेहसालार की स्त्री! तू मैदाने जंग की ख़्वाहिश करती हुई दूर देश में जाकर दुशमनों से लड़ाई कर और उनको मार कर फ़तह हासिल कर तू। उन दूर दराज़ के मुल्कों में रहने वाले दुशमनों में से एक को भी मारने के बगै़र मत छोड़।’’ (यजुर्वेद 45-17)
स्वामी दयानन्द के मैअ़यार के मुताबिक़ मज़कूरा बाला वेद मंतर न तो ख़ुदा का हुक्म हो सकता है न ख़ुदा की किताब का क्योंकि इसमें अपने मुल्क से दूर बैठे हुए लोगों को ख़्वाह मख़्वाह तंग करने उन पर जाकर छापा मारने और उनका क़त्ले आम करने की तालीम है। वह भी मर्दो के हाथ से नहीं बल्कि औरतों के हाथ से, जिस सूरत में कि वेदों के ज़माने में औरतें अपने दुशमनों का क़त्ले आम करती हों, इस सूरत में मर्द जिस क़द्र उनकी गर्दनें काटते हों उसी क़द्र थोड़ा है। इससे मालूम होता है कि वेदों में बअज़ मंतर ऐसी ख़ौफ़नाक और ख़तरनाक स्प्रिट अपने अन्दर रखते हैं जो कि इस वहशी ज़माने की याद है जबकि वेदों के मंतर घड़े ये कहना कि ऐसे मंतरों का प्रकाश ख़ुदा ने ख़ुद ही शुरू आग़ाज़े दुनिया में किया था बिल्कुल जिहालत और बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा की ज़ात पाक पर एक बदनुमा धब्बा हैै।
बदकिरदारों की गर्दन काटो
स्वामी दयानन्द ने ज़ाहिर किया है कि जो किताब ये तालीम देती हो कि बदकिरदारों या काफ़िरों की गर्दन का उनकी बेख़कनी करो और इस काम में उनका ख़ुदा उनकी मदद करता हो। न तो वह किताब ख़ुदा की हो सकती है न ऐसा ख़ुदा ख़ुदा हो सकता है। बल्कि ये सब इस किताब के मुसन्निफ़ का फ़रेब समझना चाहिये। स्वामी दयानन्द का ये उसूल बहुत अच्छा है। मगर देखना चाहिये कि आया वेद इस उसूल के मुताबिक़ ख़ुदा की किताब साबित हो सकता है, या नहीं चुनांचे लिखा है।
‘‘ऐ इन्सान जिस तरह मैं बदकिरदारों की गर्दन काटता हूँ वैसे तू भी काट।’’ (यजुर्वेद 22-5)
स्वामी दयानन्द के ख़ुद साख़्ता मैअ़यार के मुताबिक़ जिस वेद में इस क़िस्म की तालीम हो कि जिसको वेदों के मानने वाले बदकिरदार होने का फ़तवा दे दें। उसकी ही गर्दन काट दी जाये ख़्वाह वह दरअसल बदकिरदार न भी हो। वह किताब किसी सूरत में भी ख़ुदा की किताब नहीं हो सकती और दूसरे अगर ये मान भी लिया जाये कि कोई बदकिरदार है तो क्या उसकी बदकिरदारी का इलाज उसकी गर्दन काटना ही हो सकता है हरगिज़ नहीं कोई डाक्टर ये नहीं कहेगा कि बीमारी का आसान इलाज बीमार की गर्दन काटना है। अगर ख़ुदा को ये मन्ज़ूर है कि इन्सान रूहानी अमराज़ से शिफ़ा पायें तो उन अमराज़ का इलाज होना चाहिये न कि मरीज़ों की ही गर्दन काट देनी चाहिये। पस बक़ौल स्वामी दयानन्द वेद ख़ुदा की किताब नहीं है। बल्कि ये महज़ चन्द इन्सानों के ख़्यालात के इज़हार का मजमूआ है। इन ख़्यालात में से बअज़ अच्छे हैं और बअज़ सख़्त वहशतनाक और फ़ासिद हैं।
मुख़ालिफ़ों को हब्स दवामी की सज़ा
ऐसे लोगों को जो हमारी किसी नाजायज़ हरकत से हम से नाराज़ हो जाते हों क्या सज़ा मिलनी चाहिये इसके मुतअल्लिक़ वेद में लिखा है-
‘‘जो दुष्ट हम लोगों से मुख़ालफ़त करता है या जिस दुष्ट से हम लोग मुख़ालफ़त करते हैं तुम इस बदकिरदार दुशमन को मुख़्तलिफ़ ज़ंजीरों से जकड़ों और उसको उन ज़ंजीरों से कभी मत छोड़ों। (यजुर्वेद 15-26/1)’’
गोया इसको हमेशा के लिये कै़द में मरने दिया जाये ख़्वाह वह हम से दुशमनी न भी करता हो और हमारा बड़ा ख़ैरख़्वाह हो। मगर चूँकि हम इससे दुशमनी करते हैं इसलिये इसको क़ैद कर दो ये महज़ इन्साफ़ का ख़ून करना है।
दुष्टों के साथ कै़द में सुलूक
और फिर ऐसे कै़दियों के साथ क़ैदख़ाने की कोठरी में क्या सुलूक करना चाहिये इसका ज़िक्र बदीं अल्फ़ाज़ में किया गया है।
‘‘ऐ दुष्ट इन्सान तू कभी भी हिदायत की रोशनी हासिल न कर सके तेरा आनन्द देने वाला इल्म का रस तुझे कभी भी आनन्द न दे।’’ (यजुर्वेद 26-1)
मौजूदा गवर्नमेन्ट का क़ायदा है कि वह क़ैदियों की तालीम व तरबीयत का भी इन्तज़ाम करती हैं और उनको सुधारने की कोशिश करती हैं मगर वेद कहता है कि ऐसे क़ैदियों को जिनको हम ने इसलिये उम्र क़ैद की सज़ा दी है क्योंकि हम उनसे नाराज़ हो गये हें कभी भी हिदायत की रोशनी नसीब न हो और वह हमेशा इल्म से महरूम रहें बल्कि अपना पहला लिखा पढ़ा भी भूल जायें ऐसी ख़ौफ़नाक तालीम को बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना सख़्त जिहालत है।
जायज़ व नाजायज़ तरीक़ों से मुख़ालिफ़ों को हलाक करो
अपने मुख़ालिफ़ों को हलाक करने में जायज़ व नाजायज़ वसाईल की मुतलक़ परवाह नहीं करनी चाहिये चुनांचे लिखा है-
‘‘ऐ इन्सान.....जिस तरह भी दुशमनों को हलाक किया जा सके उसी क़िस्म के कामों को करके सदा ही राहत से ज़िन्दगी बसर करो।’’ (यजुर्वेद 25/1)
इससे मालूम होता है कि दुशमनों को हलाक करने के लिये ख़्वाह तुम को नापाक से नापाक शर्मनाक से शर्मनाक काम भी करना पड़े तो भी कर डालो। धर्म अधर्म की मुतलक़ परवाह न करो ऐसी तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना सख़्त ज़ुल्म है बल्कि बक़ौल स्वामी दयानन्द इस क़िस्म की बातें मुसन्निफ़ों के अपने ही फ़ासिद ख़्यालात होते हैं, ख़ुदा को इनसे क्या तअ़ल्लुक़।
दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थना
स्वामी दयानन्द के नज़दीक दुशमनों की हलाकत के लिये परमात्मा से प्रार्थना करना जिहालत की बात है, जैसा कि पहले दिखाया जा चुका है, लेकिन वेदों में जाबजा ऐसे मंतर आते हैं जिनमें सिर्फ़ परमात्मा से दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थना की गयी है बल्कि ख़ुद परमात्मा ने बशर्तेकि वेदों को इसका कलाम कहा जाये, ऐसे मंतरों को प्रकाश किया है मसलन्
(1) ‘‘हे परमात्मन! मैं बदकिरदार या दुशमनों की हलाकत के लिये... आप को अपने दिल मे क़ायम करता हूँ।’’ (यजुर्वेद 1/17)
(2) ‘‘हे परमेश्वर! मैं दुशमनों की हलाकत के लिये ... आपको अपने दिल में क़ायम करता हूँ। ऐ सबको धारण करने वाले परमेश्वर... मैं दुशमनों की हलाकत के लिये आपको ... बार बार अपने दिल में क़ायम करता हूँ।’’(यजुर्वेद 1/18)
स्वामी दयानन्द के मैअ़यार के मुताबिक़ वेदों के इस क़िस्म के मंतर जिन में कि परमात्मा से दुशमनों की हलाकत के लिये प्रार्थन की गयी है, महज़ जिहालत की अलामत है जिस किताब में इस क़िस्म की बातें हों, इसको बक़ौल स्वामी दयानन्द ख़ुदा का कलाम मानना सख़्त जिहालत है, पस वेद कलामे इलाही नहीं।
अपने दुशमनों की बेख़कीनी करो
वेद में तमाम इन्सानों के क़त्ल की तालीम है जो वेदों के मैअ़यार के मुताबिक़ बदकिरदार, बद अतवार, ख़ुर्दग़र्ज़, ज़ालिम, दान पुण्य न करने वाले हैं मसलन् -
‘‘मुझ को चाहिये कि कोशिश करके बदकिरदार और बदअतवार इन्सान की यक़ीनन् बेख़कीनी करूँ और जो दान पुण्य व धर्म से ख़ाली, ज़ालिम, बदकिरदार, दुशमन हैं उनकी सरीहन् बेख़कीनी करूँ।’’ (यजुर्वेद 1/7)
इस मंतर से हर एक शख़्स जो वेदों को ख़ुदा का कलाम मानने वालों के किसी इंस्टीट्यूशन को दान नहीं देता, या वह उनकी मुख़ालफ़त करता है वह ज़ालिम, बदकिरदार और वेदों का दुशमन है। मज़कूरा बाला सज़ा का मुस्तहिक़ हो सकता है, ऐसे मंतरों को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करना जो हर एक नेक व बद को रोज़ी देता और उनकी परवरिश करता है, सख़्त गुनाह है। बक़ौल स्वामी दयानन्द ऐसी किताब न ख़ुदा की हो सकती है न किसी आलिम और नेक शख़्स की।
निहायत ही नामाकूल और कमीनेपन की दुआ
यूँ तो वेद के जिस क़द्र मंतर ऊपर दर्ज किये गये हैं उनमें से एक से एक ख़तरनाक तालीम का मज़हर है। लेकिन बअज़ मंतरों में परमात्मा से और राजा से सख़्त नामाकूल और कमीनगी से भरी हुई प्रार्थना की गयी है मसलन्-
‘‘हे परमात्मन् आप की कृपा से हम लोगों के पानी और अनाज वग़ैरह नबातात सरीशत मित्र (दोस्त) की मानिन्द हों और जो हम लोगों से दुशमनी रखता है या जिससे हम लोग दुशमनी करते हैं उसके लिये जल और अनाज वग़ैरह सबके सब दुख देने वाले दुशमन की मानिन्द हों। (यजुर्वेद 22/6)
स्वामी दयानन्द ने इस क़िस्म की प्रार्थनाओं को सत्यार्थ प्रकाश में महज़ जिहालत की प्रार्थनायें लिखा है क्योंकि ये साफ़ ज़ाहिर है कि हमारे कहने से परमात्मा हमारे दुशमनों पर अनाज और पानी का दरवाज़ा कभी बन्द नहीं कर सकता और फिर ये किस क़द्र कमीनेपन की दुआ है कि हम परमात्मा से ये दुआ करें कि अनाज पानी और हवा हमारे लिये तो आराम देने का मूजिब हों लेकिन जिन लोगों से हम दुशमनी करते हैं ख़्वाह वह लोग हम से दुशमनी न भी करते हों या जो लोग हम से हमारी किसी नाजायज़ हरकत पर दुशमनी करते हों उनके लिये अनाज पानी और हवा ज़ेहरीली हो जायें और वह उनको खाने पीने के साथ ही मर जायें। इस मुल्क में बअज़ कम्बख़्त जाहिल औरतों की आदत है कि जब वह आपस में लड़ पड़ा करती हैं तो वह एक दूसरे के दूध पूत की तबाही के लिये बददुआ करती हैं। दुशमनी के बारे में ये प्रार्थना करना उनके लिये हवा, पानी और अनाज को परमात्मा ज़ेहरीला कर दे, इसी क़िस्म की कमीनेपन की प्रार्थना है जो कि जाहिल के मज़कूरा बाला फ़अ़ल से भी बदतर है। क्या वह परमात्मा जिसने हर एक नेक व बद के लिये अनाज पानी हवा और सूरज और ज़मीन को यकसाँ पैदा किया है वह ऐसा कमीना हो सकता है कि वह इन्सानों को इस क़िस्म का इलहाम दे कि तुम मुझसे दुआ करो कि मैं तुम्हारे दुशमनों के लिये पानी, हवा अनाज को ज़ेहरीला कर दूँ। हालाँकि वह उन लोगों को भी हवा और पानी वगै़रह देता है जो कि परमात्मा को गालियाँ देते हैं और वह उनकी भी परवरिश करता है जो परमात्मा की हस्ती से मुनकिर हैं और वह ज़ेहरीले साँपों और ख़तरनाक दरिन्दों को भी ये चीज़ें देता है। फिर ये क्योंकर तसलीम किया जाये कि वह इन्सानों को मज़कूरा बाला क़िस्म की सख़्त नामाकूल और कमीनेपन की प्रार्थनायें करने का उपदेश कर सकता है। यक़ीनन् वह इस क़िस्म की कमीनगी का सबूत दे सकता, जब स्वामी दयानन्द जैसा माकूल शख़्स भी इस क़िस्म की दुआओं को जिहालत बताता है तो क्या परमात्मा स्वामी दयानन्द से भी माकूल नहीं है कि वह इस क़िस्म की प्रार्थना करने के लिये इन्सानों को उपदेश न करे पस इस क़िस्म के मंतरों को ख़ुदा की ज़ात पाक की तरफ़ मनसूब करना, ख़ुदा पर ख़तरनाक नामाकूल और कमीनेपन का इलज़ाम लगाना है। अलग़रज़ वेदों में अपने धर्म के मुख़ालिफ़ों या दुशमनों की बेख़कनी करने उनकी गर्दनें काटने, उनको ज़िन्दा आग में जलाने, समन्दर में ग़र्क़ करने, दरख़्तों से लटकाकर मारने, शेरों और भेड़ियों और दीगर ख़तरनाक दरिन्दों के मुँह में डालने और उनको अनवाअ़ व अक़साम के अज़ाबों से मारने के बारे में सैंकड़ों मंतर दर्ज हैं मज़कूरा बाला चन्द मंतर नमूने के तौर पर सिर्फ़ यजुर्वेद में से पेश किये गये हैं। उन मंतरों का तर्जुमा वही किया गया है जो कि स्वामी दयानन्द ने किया है। जब मैं इन मंतरों का मुतालेअ़ा करता हूँ तो मेरी रूह काँप जाती है कि मैं वेद को ख़ुदा का कलाम मानूँ चुनांचे मैं इसको ख़ुदा का कलाम मानना सख़्त कुफ्ऱ और गुनाह समझता हूँ और मेरा ये ख़्याल है कि कोई भी दयानतदार शख़्स वेदों की ऐसी तालीम को देखकर उनको ख़ुदा का कलाम तसलीम नहीं करेगा। ये तालीम हमें इस वक्त चन्दाँ नुक़सानदेह मालूम न हो, इसलिये कि इस पर अमल करने के लिये हमारे हाथ में पोलिटिकल या हुकूमत की ताक़त नहीं है। लेकिन ऐसी तालीम के ख़ौफ़नाक नताईज का इस वक्त पता लग सकता है जबकि ये तालीम एक ऐसी क़ौम के हाथ में आ जाती है जो कि बरसरे हुकूमत हो और वह अपने दुशमनों या मज़हब के मुख़ालिफ़ों की सज़ा दही के लिये आख़री फ़तवे वेदों से माँगती हो। इस सूरत में वेद अपने दुशमनों के साथी इसी सुलूक का फ़तवा देगा। जिसका कि ऊपर ज़िक्र किया गया है चूँकि इस फ़तवे को अमली जामा पहनाने वाले पुरोहित होते हैं पस पुरोहित अपनी मर्ज़ी या हाकिम की मर्ज़ी या अपने दिली जज़्बात या इन्तक़ाम की सेरी के लिये हस्बे मौक़ा वेद में से अपने मुख़ालिफ़ों की हलाकत का फ़तवा निकाल देगा। इस तरह इलहामी किताब बक़ौल मिस्टर ह्यूम पुरोहितों के हाथ में इन्सानों की रूहों पर जोर व जुल्‍म करने का एक हथियार बना रहा है और बना रह सकता है चूँकि हिन्दुस्तान में हुकूमत करने वाली पार्टी की मुशीरेकार हमेशा पुरोहित क्लास रही है। इसलिये पुरोहित क्लास ने हाकिमों के हाथ से उनही वेदों की तालीम की आड़ में अपने मुख़ालिफ़ों या दुशमनों के साथ जिस बेदर्दी और संगदिली का सुलूक किया है बक़ौल मिस्टर ह्यूम तारीख़ के औराक़ इसकी याद में ख़ून से रंगे हुए हैं। ऐसे हालात में हर एक दयानतदार शख़्स को मिस्टर ह्यूम के मुफ़स्सला ज़ैल सख़्त मगर दुरूस्त अल्फ़ाज़ के साथ बिल्कुल इत्तफ़ाक़ करने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
‘‘ख़्वाह स्वामी दयानन्द इससे दस गुनाह आलिम और नेक दिल भी होता जितना कि वह दरहक़ीक़त है ख़्वाह उसके इरादे इससे सौ गुना नेक आला और बे ग़र्ज़ा न होते जितने कि वह हैं फिर भी ये हर एक शख़्स का ख़्वाह वह कितना ही अदना और कम इल्म हो मगर उसने तारीख़ की शहादत से इस निहायत ही ख़तरनाक अक़ीदे के सख़्त ख़तरनाक नताईज से आगाही हासिल कर ली हो फ़र्ज़ होना चाहिये कि वह कम से कम इस पहलू में स्वामी दयानन्द की बहादुराना मुख़ालफ़त करे जबकि वह इस अक़ीदे को (कि वेद ख़ुदा का कलाम है) बतौर एक सनद के हम से मनवाने की कोशिश करता है और इसको साफ़ अल्फ़ाज़ में बताया जाये कि अगरचे वह दीगर मामलात में एक देवता कहा जा सकता है। मगर इस अक़ीदे में उसकी पोज़िशन एक ऐसे ग़द्दार की पोज़िशन है जो कि इनसानी बेहबूदी और सदाक़त के हक़ में ख़तरनाक ग़द्दारी कर रहा हो।’’ (थ्योसोफ़िस्ट मार्च 1893 ई.)

एक ज़रूरी सवाल
अब यहाँ पर ये ज़रूरी सवाल पैदा होता है स्वामी दयानन्द ने किस किताब को इलहामी के दर्जे से साक़ित करने के लिये जो मैअ़यार क़ायम किया है और जिस मैअ़यार की बिना पर जैसा कि पीछे बयान किया जा चुका है वह अहले इस्लाम की मज़हबी किताब को ख़ुदा की किताब होने के दर्जे से साक़ित कर चुके हैं बिला लिहाज़ इसके कि उन्होंने इसके मतलब को समझाया नहीं। अब जबकि इसी मैअ़यार पर वेदों की तालीम को ख़ुद स्वामी दयानन्द के ही अल्फ़ाज़ में रखकर परखा जाता है तो वेद सिर्फ़ यही नहीं कि ख़ुदा की किताब साबित नहीं होने बल्कि वह एक बदतरीन किताब साबित होते हैं। तो फिर क्या वजह है कि स्वामी दयानन्द ने उनको ख़ुदा का कलाम तसलीम किया। ये एक ऐसा गहरा और पेचीदा सवाल है कि जिसका जवाब स्वामी दयानन्द के नोश्तों के सिवाये दूसरी जगह मिलना मुश्किल है जब स्वामी दयानन्द के नोश्तों को खोला जाता है तो हमें पता लगता है कि स्वामी दयानन्द, दयानतदारी का इस क़द्र मोअ़तक़िद नहीं था। जिस क़द्र कि वह दुशमन को नीचा दिखाने का तरफ़दार था। वह मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर के अल्फ़ाज़ में हक़ व हक्क़ानियत की फ़तह का ज़्यादा ख़्वाहिशमंद था चुनांचे सत्यार्थ प्रकाश के ग्यारहवें समुल्लास में इसके अल्फ़ाज़ मुफ़स्सला ज़ैल हैं।
‘‘अब इसमें ग़ौर करना चाहिये कि अगर जीव ब्रहम की एकता और दुनिया का झूठा होना शंकराचार्य का ज़ाती ऐतक़ाद था तो वह उमदा ऐतक़ाद नहीं और अगर जैनियों की तरदीद के लिये इस ऐतक़ाद को इख़्तियार किया हो तो कुछ अच्छा है।’’ (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11)
स्वामी दयानन्द की मज़कूरा बाला तहरीर से साफ़ साबित होता है कि अगर मुख़ालिफ़ को नीचा दिखाने के लिये एक ग़लत ऐतक़ाद को दुरूस्त भी मान लिया जाये तो ये कोई गुनाह नहीं है। वह अपने इस उसूल के मुताबिक़ न सिर्फ़ स्वामी शंकराचार्य को ही रियाकार साबित करता है बल्कि वह ख़ुद भी रियाकारी को कोई अख़्लाक़ी गुनाह नहीं मानता और मैं एक वेद मंत्र के ज़रिये पीछे दिखा आया हूँ कि ख़ुद वेद ने इस बात की तालीम दी है कि मुख़ालिफ़ को नीचा दिखाने के लिय तमाम जायज़ और नाजायज़ वसाईल से काम लेना चाहिये। ऐसे वेद मंत्र की मौजूदगी में मुख़ालिफ़ों को सरनगूँ करने की ख़ातिर अगर स्वामी दयानन्द रियाकारी को कोई अख़्लाक़ी गुनाह नहीं समझता तो इसके ज़मीर को कोई तंगी महसूस नहीं हो सकती जबकि वह ये ऐतक़ाद रखता है कि जिस ख़ुदा को वह मानता है या जिस ख़ुदा की तरफ़ वह वेद को मनसूब करता है ख़ुद वह ख़ुदा भी इन्सानों को रियाकारी की इजाज़त देता है लेकिन जो शख़्स इस क़िस्म के अख़्लाक़ी तनज़्ज़ुल की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करता या जो दयानतदारी को रियाकारी पर तरजीह देता है वह ये मुनासिब समझेगा कि वेदों को इन्सानों की बनायी हुई किताब तसलीम करे बनिसबत इसके कि वह महज़ मुख़ालिफ़ों को नीचा दिखाने के लिए उनको ख़ुदा का कलाम मानकर रियाकारी का जामा ओढ़े। यहाँ पर सवाल किया जायेगा कि स्वामी शंकराचार्य ने तो बुद्धों को नीचा दिखाना था जो ख़ुदा की हस्ती के क़ायल नहीं थे। या वेदों से मुनकिर थे लेकिन स्वामी दयानन्द ने किन लोगों को नीचा दिखाने के लिये दयानतदारी के हथियार को हाथ से फेंक कर वेदों को ख़ुदा का कलाम माना इसका जवाब बड़ा आसान है जबकि ये देखा जाता है कि स्वामी दयानन्द के सामने मुसलमानों ने एक ऐसी किताब को पेश किया जिसको कि वह ख़ुदा का कलाम तसलीम करते थे। स्वामी दयानन्द ने इस किताब को ख़ुदा का कलाम तसलीम करने से इनकार कर दिया और एक किताब की बजाये चार किताबें ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करके मुसलमानों की बात का जवाब दे दिया। इसी तरह जब मसीही लोगों ने बाईबिल के बअज़ नोशतों को पाँच हज़ार साल का पुराना बताया तो स्वामी दयानन्द ने उनकी तरदीद का आसान तरीक़ा ये समझा कि उसने उनके मुक़ाबले में वेदों को एक अरब कई करोड़ बरस का पुराना बता दिया इस तरह इसने पंजाबी की ज़रबुल मिस्ल जाट के सर पर खाट और तेली के सर पर कोल्हू रखने का अमल किया वरना अम्रे वाक़िआ तो ये है कि किसी किताब को इलहामी होने के दर्जे से साक़ित करने के लिए स्वामी दयानन्द ने जो मैअ़यार मुक़र्रर किया है और जो ऊपर दिखाया जा चुका है। इसी मैअ़यार पर परखने से वेद एक बदतरीन किताब साबित होती है। क्योंकि इसमें अपने दुशमनों के साथ महज़ इस बिना पर कि हम इनको अपना दुशमन समझते हैं ऐसे ज़ालिमाना सुलूक की तालीम दी गयी है जिसका कि इस किताब में जिसको कि स्वामी दयानन्द वहशियों की किताब क़रार देता है। नाम व निशान भी नहीं मिलता ये तालीम कि इन लोगों से जो तुम को तंग करते हैं या तुम पर जुल्‍म करते हैं या तुम्हारे अयाल व अतफ़ाल को अनवाअ़ व अक़साम की तकालीफ़ पहुँचाते हैं। तुम उनको मुक़ाबले में अपने आप को डिफे़न्ड करो। इस क़द्र ख़ौफ़नाक नहीं है, जिस क़द्र कि ये तालीम ख़तरनाक है कि तुम लोगों को ज़िन्दा आग में जला दो। समन्दर में ग़र्क़ कर दो। शेर के मुँह में डाल दो, दरिन्दों से चरवा दो, जो ख़्वाह तुम से किसी क़िस्म की दुशमनी या अनाद न रखते हों तुम उनसे नाख़ुश हो, या उनको बुरा समझते हो, या उनसे दुशमनी रखते हो, ये ऐसी तालीम है ख़ुदा का ज़ाबता तो एक तरफ़ दुनिया के मुरव्वजा क़वानीन के मुताबिक़ भी क़ाबिले तारीफ़ नहीं कही जा सकती क्योंकि जहाँ मुरव्वजा क़वानीन गवर्नमेन्ट सेल्फ़ डिफ़ेन्स को बअज़ हालात में जुर्म क़रार नहीं देते वहाँ वह ऑफे़न्सो पोलीसी को मतऊन गरदांते हैं। ये ताज्जुब की बात है कि स्वामी दयानन्द सेल्फ़ डिफे़न्स की तालीम को तो वहशियों की तालीम बताता है। लेकिन वह आफे़न्सो पोलीसी की तालीम को ख़ुदा की तरफ़ मनसूब करता है हालाँकि कोई दयानतदार शख़्स अपनी आँख के शहतीर को तिनका और दूसरे की आँख के तिनके को शहतीर ज़ाहिर नहीं करेगा। बल्कि इसकी दयानतदारी का तक़ाज़ा ये होगा कि तिनका ख़्वाह मुखा़लिफ़ की आँख में हो ख़्वाह इसकी अपनी आँख में हो वह इसको तिनका ही कहे और हत्ताउल मक़दूर उसको निकालने की कोशिश करे। मगर जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है कि स्वामी दयानन्द ने अपने मुख़ालिफ़ों की किताबों के तिनके को शहतीर और वेदों के शहतीरों को तिनके बल्कि सुर्मे के ख़ूबसूरत डोरे ज़ाहिर किया है। इसकी वजह सिवाये इसके कुछ नहीं हो सकती है कि वह मुहक्किक की पोज़िशन में मिस्टर हरबर्ट स्पेन्सर के अल्फ़ाज़ में मुल्की, क़ौमी, नसली और पैदाईशी तअस्सुबात से आज़ाद नहीं था। चुनांचे इनकी तहरीर से जाबजा इस बात का पता लगता है मसलन् वह ब्रहमो समाजियों का खंडन करते हुए लिखते हैं -
(1) वेद विद्या से बे बहरा लोगों के ख़्यालात बिल्कुल सच्चे क्योंकर हो सकते हैं...
उन लोगों में अपने मुल्क की हमदर्दी बहुत कम है, उन्होंने ईसाइयों के चलन बहुत से इख़्तियार किये हैं।
(2) अपने मुल्क की तारीफ़ या बुज़्ाुर्गों की बड़ाई करनी तो दूर रही इसके अवज़ में पेट भरकर मज़म्मत करते हैं। लेकचरों में ईसाई वग़ैरह अंग्रेज़ों की तारीफ़ दिल खोलकर करते हैं। ब्रहमा वगै़रह महर्षियों के नाम भी नहीं लेते।’’
(3) भला जब आर्यवृत्त में पैदा हुए और इस मुल्क का आबो दाना खाया पिया और अब भी खाते पीते हैं तो अपने माँ बाप दादा के रास्ते को छोड़कर दीगर गै़र मुमालिक के मज़हबों की तरफ़ ज़्यादा माइल हो जाना और ब्रहम समाजी और प्रार्थना समाजियों का इस मुल्क में रहकर इल्म संस्कृत से बेबहरा होकर अपने को आलिम ज़ाहिर करना। अंग्रेज़ी पढ़कर पंडित का घमण्ड करना और फ़ौरन् एक मज़हब चलाने के लिये राग़िब हो जाना ये इन्सानों के लिए मुस्तहकम और उनकी तरक्क़ी करने वाला काम क्योंकर हो सकता है।
(4) अंग्रेज़ मुसलमान चन्डाल वगै़रह से भी खाने पीने की तमीज़ नहीं रखी .... उन्होंने यही समझा होगा कि खाने और ज़ात का इम्तियाज़ तोड़ने से हम और हमारा मुल्क सुधर जायेगा लेकिन ऐसी बातों से सुधार तो कहाँ है उल्टा बिगाड़ होता है।
(5) जब कुल सच्चाइयाँ वेदों से हासिल होती हैं जिनमें कि झूठ ज़रा भी नहीं है तो उनके तसलीम करने में शक करना अपना और दूसरेका महज़ नुक़सान करना है। इसी वजह से तुम को आर्य वृत्ती लोग अपना नहीं समझते और तुम आर्य वृत की तरक्क़ी का बाइस भी नहीं हो सकते।
(6) भला वेद वगै़रह सच्चे शास्त्रों को माने बगै़र तुम अपने क़ौल की सच्चाई और झूठ की आज़माईश और आर्य वृत की तरक्क़ी भी कभी कर सकते हो। जिस मुल्क को बीमारी हुई है उसकी दवाई तुम्हारे पास नहीं है और यूरोपियन लोग तुम्हारी परवाह नहीं करते और आर्य वृती लोग तुमको दीगर मज़हब वालों की मानिन्द समझते हैं। अब भी समझ कर वेद वग़ैरह की क़द्र करने से मुल्क की तरक्क़ी करने लगो तो भी अच्छा है।’’
(7) हम और आप को निहायत मुनासिब है कि जिस मुल्क की अश्या से अपना जिस्म बना और अब भी परवरिश पा रहा है और आइन्दा पायेगा उसकी तरक्क़ी तन धन से सब लोग फ़िक्र मुहब्बत से करें इसलिये जैसा कि आर्य समाज मुल्क आर्यवृत की तरक्क़ी का बाइस है वैसा और कोई नहीं हो सकता। (सत्यार्थ प्रकाश समुल्लास 11)
मज़कूरा बाला चन्द इक़तबासात से पता लग सकता है कि स्वामी दयानन्द मुल्की क़ौमी, नसली और पैदाइशी तअस्सुबात का शिकार था, गो इससे इसका आला दर्जे का पोलिटिकल रिफ़ॉर्मर और देशभक्त होना तो साबित होता है जो कि कोई गुनाह की बात नहीं है लेकिन वह बे लाग मुहक्‍क‍िक और सदाक़त को तरफ़दार नहीं था। यही वजह है कि दीगर मज़हबी कुतुब के असली या फ़र्ज़ी उयूब के बरखि़लाफ़ तो वह बेरहमी से कुल्हाड़ा चलाता गया। लेकिन जब उनसे हज़ार दर्जे बढ़कर उयूब इसको वेदों में नज़र आये तो इसका हाथ काँप गया। वह सिर्फ़ यही नहीं कि उन उयूब के बरख़िलाफ़ आवाज़ न उठा सका बल्कि उसने एक मामता की मारी हुई माँ की तरह जो दूसरे के बच्चों को ख़्वाह वह कैसे ही ख़ूबसूरत और साफ़ सुथरे हों नफ़रत करती हो और अपने पेट से पैदा शुदा बच्चे को ख़्वाह वह कैसा ही लूला, लंगड़ा, लंुजा और अंधा हो चूम चाटकर छाती से लगा लेती हो। वेदों की मज़कूरा बाला सख़्त ख़तरनाक तालीम को अपने मैअ़यार और उसूल के बरखि़लाफ़ पाकर भी निहायत ही प्यार और मुहब्बत के साथ सिर्फ़ अपने दिल में जगह दी बल्कि उनको ख़ुदावंदे कुद्दूस की किताब तसलीम किया। इन तमाम हालात का मुतालेअ़ा करके हर एक हक़ पसन्द शख़्स इस नतीजे पर पहुँचेगा कि वेदों को ख़ुदा का कलाम तसलीम करने में स्वामी दयानन्द ने दयनतदारी को रियाकारी पर कुर्बान कर दिया और अपने इस फ़अ़ल की ताईद में इसने स्वामी शंकराचार्य को भी अपने साथ मिला लिया’’ जैसा कि पीछे दिखाया जा चुका है। मिस्टर ह्यूम के अल्फ़ाज़ में हक़ व हक्क़ानियत के तमाम आशिक़ों को इस बात पर वाक़ई अफ़सोस करना चाहिये।
भाग 2
doosri kist